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________________ आधार पर व्यक्तित्व का सूक्ष्म विवेचन हुआ है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस दृष्टि से कार्य होना अभी भी अवशिष्ट है। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण जीव का ज्ञान स्वरूप आवृत हो जाता है। फलस्वरूप उसकी ज्ञान-चेतना विकसित नहीं हो पाती। जब आवरण कुछ हल्का होता है तब ज्ञान-चेतना का भी विकास होता है। हम देखते हैं कि प्राणियों में ज्ञान-चेतना की तरतमता दिखाई देती है। इसका हेतु ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है, जिसके क्षयोपशम अधिक होगा, उसका ज्ञान-विकास भी अधिक होगा। ज्ञान के क्षयोपशम की न्यूनता में ज्ञान कम होगा। शेल्डन ने लम्बाकार आकृति वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व को सेरेब्रोटोनिक माना है। कर्म-सिद्धान्त ने ज्ञान के विकास के लिए विकसित शरीर की आवश्यकता को भी स्वीकार किया है। वज्रऋषभनाराच आदि छः संहननों में श्रेष्ठ संहननों में ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। विशिष्ट ज्ञान-शक्ति का विकास अमुक प्रकार के संहनन में ही हो सकता है। कर्म-सिद्धान्त की यह मान्यता शेल्डन की व्यक्तित्व अवधारणा के साथ तुलनीय है। ___ मोह-कर्म के अनेक प्रकार हैं। उन विभिन्न मोह-कर्म की प्रकृतियों के उदय के अनुसार ही व्यक्ति के विचार एवं व्यवहार परिलक्षित होते हैं। गेलन ने जो विषादी, कोपशील चित्त-प्रकृतिवाले व्यक्तियों का उल्लेख किया है, उसका सम्बन्ध मोह-कर्म की प्रकृतियों के उदय से है। कर्म-सिद्धान्त के अनुसार व्यक्तित्व के और भी अनेक प्रकारों का विश्लेषण किया जा सकता है। मोहकर्म की क्षय, उपशम, क्षयोपशम की अवस्था में व्यक्तित्व भिन्न प्रकार का होगा। प्रतिदिन के अनुभव में यह तथ्य स्पष्ट होता है कि एक जैसी प्रतिकूल परिस्थिति, एक जैसी घटना, किन्तु उसमें एक तो शान्त रह सकता है और इसके विपरीत दूसरा उद्वेलित हो जाता है, इसका क्या कारण है? कर्म-सिद्धान्त की भाषा में जिसके मोहनीय कर्म विलय अवस्था में है वह खेदखिन्न नहीं बनेगा। घटना के प्रति भी वह सम्यक् दृष्टिकोण से चिन्तन करेगा किन्तु मोहनीय-कर्म की उदयावस्था में उद्वेलन हो जायेगा। आचरण, व्यवहार की जो तरतमता परिलक्षित होती है, उसका हेतु कर्म की विभिन्न अवस्थाएं ही हैं। मानस-शास्त्र को समझने के लिए कर्म-शास्त्र को समझना भी आवश्यक है। क्योंकि कर्म-शास्त्र हमारे आचरणों की कार्य कारणात्मक मीमांसा है। हम जो भी आचरण करते हैं, उसके दो कारण होते हैं-बाह्य एवं आभ्यन्तर । बाहरी कारण बहुत स्पष्ट हैं। आन्तरिक कारण का अन्वेषण ही कर्म-सिद्धान्त का जनक है। व्रात्य दर्शन • ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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