SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मों का उपार्जन होगा। यथा ज्ञानावरणीय कर्म के हेतुओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है-यदि व्यक्ति ज्ञान या ज्ञानी के प्रति असद् व्यवहार करता है, ज्ञानी से द्वेष रखता है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के निमित्त का उल्लेख भी अन्य के प्रति किया जाने वाला व्यवहार ही है। इससे स्पष्ट होता है कि कर्म-बन्ध के ये हेतु आचार निरूपण के प्रमुख तत्त्व हैं। जैन-दर्शन में अनेक स्थानों पर कहा गया है- 'कडाण कम्माणं न मोक्ख अत्थि'१३ क्रिया निष्फल नहीं होती। जैसा ‘बोओगे वैसा काटोगे' ये प्रचलित लोकोक्तियां भी आचार-मीमांसा एवं कर्म-मीमांसा के सम्बन्ध को स्पष्ट करती है। निष्कषर्तः हम कह सकते हैं कि जो व्यक्ति कर्म-बन्धन से निवृत्ति का प्रयत्न एवं कर्म-मुक्ति की दिशा में अग्रसर होगा उसका आचरण स्वतः ही उत्तम होगा। - जैन-दर्शन के अनुसार जिस व्यक्ति में संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है, वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है। दशवकालिक सूत्र में कहा गया है कि समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सबके प्रति समभाव है, वह पाप-कर्म का बन्ध नहीं करता।१४ - पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई ॥ सभी को जीवित रहने की इच्छा होती है। कोई भी मरना नहीं चाहता। सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है। इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है, जिसके द्वारा किसी भी प्राणी का हनन नहीं हो।१५ । जैन आचार-दर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में जिन तथ्यों पर अधिक बल देता है, वे सभी समाज-सापेक्ष हैं। वस्तुतः कर्म के शुभाशुभत्व के वर्गीकरण में सामाजिक दृष्टि प्रधान परिलक्षित होती है। यद्यपि आत्मिक शुद्धि तो उसका परम लक्ष्य है ही किन्तु आत्म-शुद्धि के क्षेत्र में सामाजिक सम्बन्धों को विस्मृत नहीं किया गया है। कर्म सिद्धान्त की आचार के निर्धारण के लिए महती आवश्यकता है और आचार-दर्शन कर्म-सिद्धान्त के आधार पर ही व्यक्ति में नैतिकता के प्रति निष्ठा जागृत कर सकता है। प्रो. वेंकटरमण का मानना है कि कर्म-सिद्धान्त कार्यकारण-सिद्धान्त के नियमों एवं मान्यताओं का मानवीय आचरण के क्षेत्र में प्रयोग है, जिसकी उपकल्पना यह है कि जगत् में कोई भी घटना संयोग अथवा स्वच्छन्दता का परिणाम नहीं है । १६ जगत् की घटनाएं स्वच्छन्द नहीं है, नियमाधीन है। मैक्समूलर ने भी लिखा है कि- 'कोई भी अच्छा या बुरा कर्म निष्फल समाप्त नहीं होता, नैतिक जगत् का यह विश्वास ठीक वैसा ही है जैसा कि भौतिक जगत ६०. व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy