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भारतीय आचार-शास्त्र में दो धाराओं का अनुशीलन और अनुचिन्तन हुआ है-लौकिक और आध्यात्मिक। आचार-शास्त्र के लौकिक पक्ष में काम और अर्थ पर विचार किया गया और आध्यात्मिक पक्ष में धर्म और मोक्ष पर चिन्तन किया गया है। आचार-शास्त्र का महत्त्वपूर्ण विषय है-आचार-शास्त्र की प्रेरकता। आचार-शास्त्र का प्रेरक सूत्र है-सुख की प्राप्ति एवं दुःख की निवृत्ति । आचार-शास्त्र ने सुखवादी दृष्टिकोण के आधार पर प्रतिपादित किया कि मनुष्य सुख चाहता है, दुःख नहीं। भगवान् महावीर ने जिस आचार-शास्त्र का प्रतिपादन किया, उसमें सुख-दुःख की परिभाषा बदल गई। कर्म-मुक्ति सुख है एवं कर्म-बन्धन दुःख है। कर्म-बन्धन एवं मुक्ति ही आचार का केन्द्रीय तत्त्व है।
मार्क्स ने कहा है-दर्शन आदमी को ज्ञान देता है पर बदलता नहीं, इसलिए ऐसा दर्शन चाहिए जो समाज को बदल सके। पश्चिमी दार्शनिकों का यह दृष्टिकोण निष्कारण नहीं था। उनके दर्शन की पृष्ठभूमि रही थी। उन्होंने तत्त्वज्ञान और आचार को विभक्त कर दिया। दर्शन और आचार को अलग नहीं किया जा सकता। महावीर ने कोरा दर्शन नहीं दिया अपितु जीवन में आचरित दर्शन प्रदान किया। भगवान् महावीर द्वारा प्रदत्त ये दो शब्द-'बुज्झेज्ज, तिउट्टेज्जा' इसी ओर संकेत करते हैं। ज्ञान प्रथम आवश्यकता है। जानने के बाद आचरण करना आवश्यक है। 'जानो और करो' यह महावीर-वाणी का उद्घोष है। यही आचार-शास्त्र का स्रोत है।
शिष्य गुरु से पूछता है-जीवन-निर्वाह के लिए चलना, फिरना, खाना, सोना आवश्यक है। उनके अभाव में देह धारण करना असम्भव है। आप मेरा पथ-प्रदर्शन करें, जिससे ये क्रियायें भी की जा सके और पाप कर्मों का बन्ध भी न हो।१० गुरु शिष्य को समाहित करते हुए कहते हैं-इन सारी क्रियाओं को तुम यतनापूर्वक (संयमपूर्वक) करो। तुम्हारे पाप-कर्मों का बन्ध नहीं होगा। उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है, साधक का सारा आचरण कर्म मुक्ति की दिशा में अग्रसर है। उसके आचार एवं अनाचार का निर्धारक तत्त्व कर्म ही है। जिस आचरण से कर्म का बन्धन होता है, वह आचरण त्याज्य है एवं जो आचरण कर्मों का संवरण एवं निर्जरण करता है, वह उपादेय है।
कर्म-बन्धन के हेतुओं में भी हमें आचार-मीमांसीय दृष्टिकोण का अवबोध प्राप्त होता है। कर्म-बन्ध के कारणों के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति का दूसरे के प्रति कैसा व्यवहार है, वह यदि सम्यक् है तो उससे कर्मों का क्षय एवं शुभ कर्मों का बन्ध होगा। यदि वह आचरण असद् है तो अशुभ
व्रात्य दर्शन - ६
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