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________________ है। नव तत्त्वों का विश्लेषण आचार-शास्त्र का प्रमुख आधार है तथा नव तत्त्वों का विभाग कर्म पर ही आधारित है। महावीर ने सबसे पहले नौ तत्त्वों का विवेचन किया-यह आचारांग के आधार पर कहा जा सकता है। साधना के क्षेत्र में नौ तत्त्वों का ही प्रयोजन है, उन्हीं के आधार पर सारी आचार-व्यवस्था का निर्धारण हुआ है। __आत्मा की त्रैकालिकता जैन-दर्शन में मान्य है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप शुद्ध है किन्तु कर्मों के कारण वह अपने मूल स्वाभाविक स्वरूप से संसारावस्था में उपलब्ध नहीं है। कर्म के कारण परिभ्रमण कर रही है। आत्मा की स्वीकृति के साथ ही यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म है, क्रिया है उनके द्वारा अनुसंचरण हो रहा है। आचार-मीमांसा के सन्दर्भ में आयारो में प्रदत्त सूत्र-‘से आयावई, लोयावई, कम्मावाई, किरियावाई'" बहुत महत्त्वपूर्ण है। सबसे पहला तत्त्व है-आत्मा, आत्मा के ज्ञात हो जाने पर यह ज्ञात हो जाता है कि लोक है। लोक का अर्थ है--पुद्गल । जो आत्मवादी है, वह लोकवादी भी है। आत्मा भी हो, पुद्गल भी हो किन्तु यदि उनमें कोई सम्बन्ध नहीं हो तो वे एक दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकते। यदि केवल चेतन ही होता अथवा केवल पुद्गल ही होता तो परिभ्रमण का कोई हेतु ही नहीं होता किन्तु कर्म नाम का तीसरा तत्त्व आत्मा एवं पुद्गल के सम्बन्ध का परिचायक है। यह कर्म ही आत्मा के संसार परिभ्रमण का हेतु है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध का सेतु है-क्रिया। अक्रिय अवस्था में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। जैसे-जैसे कपाय क्षीण होते हैं, कषाय का संवरण होता है, अक्रिया की स्थिति आने लगती है, तब आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्षीण होने लगता है। जब चौदहवें गणस्थान में पूर्ण अक्रिया की स्थिति घटित हो जाती है, तब सारे सम्बन्ध क्षीण हो जाते हैं। ____ आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद एवं क्रियावाद-ये चारों वाद सम्पूर्ण आचार शास्त्र के आधार हैं। कर्म आत्मा के मौलिक गुणों का आच्छादन एवं घात करता है, फलस्वरूप आत्म-विस्मति होती जाती है और अनन्त संसार परिभ्रमण होता रहता है। आचार-मीमांसीय तत्त्व इस विजातीय सम्बन्ध को तोड़ने का प्रयत्न करते हैं। सम्यक्-दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नत्रय के परम प्रकर्ष के द्वारा वह विजातीय सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तथा आचार का परम शुभ रूप मोक्ष का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। सम्यक्-दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय समन्वित रूप से मोक्ष के मार्ग हैं। ८८ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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