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विभाग था किन्तु उसकी समीचीन एवं स्वतन्त्र अभिव्यंजना न होने के कारण उसका स्वतन्त्र अस्तित्व गौण हो गया। जैन-परम्परा में चार अनुयोगों की व्यवस्था थी। इस अनुयोग-व्यवस्था के आधार पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि आचार-शास्त्र की सर्वत्र व्यवस्था थी। वह चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत आता था। भारतीय-दर्शन में जिसे आचार-शास्त्र कहा जाता है, उसी को पाश्चात्य-दर्शन में नीति-शास्त्र के नाम से अभिहित किया गया है। अनेक पाश्चात्य दार्शनिकों ने स्वतन्त्र आचार मीमांसीय ग्रन्थ लिखे हैं।
आचार शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है-यथा धर्म, नीति, कर्तव्य और नैतिकता आदि। मानव के कर्तव्य के रूप में जिन बातों का अथवा जिन नियमों का होना आवश्यक है, वे सब नियम आचार में समाहित हो जाते हैं। जीवन विकास एवं समाज को स्थिर, सम्पन्न बनाने के लिए आचार की नितान्त आवश्यकता होती है।
भारतीय पाश्चात्य सभी चिन्तकों के चिन्तन-प्रवाह से आचार की स्रोतस्विनी प्रवाहित हुई है। सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तू के दर्शन में नीति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ज्ञान को वहां पर सर्वोच्च शुभ माना गया है। वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक, सांख्य, योग, बौद्ध आदि सभी दर्शनों ने आचार के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। जैन धर्म-दर्शन में भी आचार को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है। आगम ग्रन्थों में अनेक आगम आचार प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। विचार एवं आचार का परस्पर सापेक्ष महत्त्व है। ‘णाणस्स सारमायारो' ज्ञान का सार आचार है। यह जैन आचार शास्त्र की उद्घोषणा है। __ जैन-दर्शन में आचार-मीमांसा का मूल आधार कर्म है। कर्म की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में आचार का निर्धारण दृष्टिगोचर होता है। साधु जब दीक्षा स्वीकार करता है, उसका स्वीकृत प्रथम संकल्प होता है-सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि'सम्पूर्ण पापकारी प्रवृत्तियों को छोड़ने के संकल्प के साथ ही उसकी श्रमणत्व की साधना शुरू होती है। साधु, श्रावक सबके करणीय-अकरणीय का विवेक कर्म-अवधारणा पर ही आधारित है। जिस प्रवृत्ति से शुभ कर्म का आश्रवण होता है, वह प्रवृत्ति हेय है। अकरणिज्जं पावकम्म-जिनके द्वारा कर्म का निर्जरण होता है, संचित कर्म का नाश एवं नये कर्म का उपार्जन नहीं होता, वह कार्य साधक के लिए करणीय है।
साधना का सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष है। जो कर्म मुक्ति के साथ ही जुड़ा हुआ है। जैनाचार का सम्पूर्ण स्वरूप कर्म-बन्ध एवं कर्म-मुक्ति के विचार पर अवलम्बित
व्रात्य दर्शन - ७
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