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६. आचारमीमांसा और कर्म
सत्य की शोध में प्रस्थित तत्त्वद्रष्टा पुरुषों ने तत्त्व साक्षात्कार से प्राप्त अनुभव को प्रस्तुत किया। उनका अनुभव ही दर्शन जगत् का आधारभूत तत्त्व बन गया। ऋषियों के द्वारा दृष्ट एवं प्रतिपादित तत्त्वों का अनुसरण होने से दर्शन भी परम्परा बन गया। सत्य के अनुभव में द्वैत नहीं होता। चाहे उसका अन्वेषण किसी क्षेत्र के व्यक्ति करें। प्राचीन युग में आत्म-साधना के द्वारा उसका अन्वेषण हुआ तथा अनेक बहुमूल्य सिद्धान्तों का आविर्भाव हुआ। वर्तमान में विज्ञान भौतिक उपकरणों के द्वारा जगत् के रहस्यों को अनावृत करने का प्रयत्न कर रहा है, उसमें उसे सफलता भी प्राप्त हुई है। प्राचीन ऋषियों के तत्त्व साक्षात्कार के विषय आत्मवाद, कर्मवाद, सृष्टिवाद आदि थे। आधुनिक युग के दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों के अन्वेषण/चिन्तन के विषयों में भिन्नता आई है एवं यह स्वाभाविक भी है किन्तु कुछ ऐसे तत्त्व, जिनका प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों धाराओं में अन्वेषण हुआ है। आचार-शास्त्र की अवधारणा के साथ कर्मशास्त्रीय तत्त्वों का तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत निबंध में काम्य है। कार्मिक तत्त्वों की अवधारणा किस रूप से समस्याओं को समाहित कर सकती हैं एवं नवीन दृष्टि प्रदान कर सकती हैं, इसका विमर्श भी यथासम्भव किया जायेगा।
भारतीय-दर्शन में आचार-मीमांसादर्शन का ही एक अंग है। प्रमाणमीमांसा, तत्त्व-मीमांसा और आचार-मीमांसा-ये तीनों ही भारतीय दर्शन में परिलक्षित होते हैं तथा तीनों ही एक लक्ष्यानुगामी है। भारतीय दर्शन की प्रत्येक शाखा में प्रमाण, तत्त्व एवं आचार का संक्षिप्त एवं विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। नास्तिक कहलाने वाले चार्वाक दर्शन में भी इन तीनों का विवेचन प्राप्त है। पाश्चात्य-दर्शन में ज्ञान-मीमांसा, तत्त्व-मीमांसा एवं आचार-मीमांसा का समन्वित रूप तो प्राप्त नहीं होता किन्तु पृथक्-पृथक् रूप से ये सारे ही तत्त्व पाश्चात्य दार्शनिकों की चिन्तना के विषय रहे हैं। भारतीय दर्शनों में भी प्राचीनकाल में आचार-शास्त्र का स्वतन्त्र ८६ . व्रात्य दर्शन
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