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९४ / जैनतत्त्वविद्या
कहा गया है । वह सर्वोत्कृष्ट शक्तिशाली संहनन होता है ।इस अस्थिरचना में तीन शब्द प्रयुक्त हैं-वज्र, ऋषभ और नाराच । अस्थिकील के लिए वज्र, परिवेष्टन अस्थि के लिए ऋषभ और परस्पर गुंथी हुई
अस्थि के लिए नाराच शब्द का प्रयोग किया गया है। अस्थि-संरचना का साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से विशेष महत्त्व है। शुक्ल ध्यान की साधना के लिए और मोक्ष-गमन के लिए वज्रऋषभनाराच संहनन का होना जरूरी है। शलाका पुरुषों (तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि) के भी छठे प्रकार की अस्थि-रचना होती है । उत्कृष्ट साधना की भांति उत्कृष्ट क्रूर कर्म भी इसी अस्थि-रचना वाले प्राणी करते हैं । एक ओर मोक्ष दूसरी ओर सातवीं नरक भूमि । एक ही माध्यम से ये दो परिणतियां पुरुषार्थ के सम्यक् और असम्यक् प्रयोग पर निर्भर करती हैं।
चिकित्सा शास्त्र में स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अस्थि-संरचना पर बहुत ध्यान दिया गया है। स्वास्थ्य सम्पन्न व्यक्ति के लिए एक शब्द है स्वस्थ । स्वस्थ शब्द का एक अर्थ है अपने में रहना। इसका दूसरा अर्थ है-जिसकी अस्थियां शोभन हों, मजबूत हों, वह स्वस्थ होता है । स्वस्थ के सन्दर्भ में यह अर्थ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। संहनन की पूरी जानकारी के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
वैक्रिय शरीर में अस्थियां नहीं होती । इस दृष्टि से नारक और देवों में किसी प्रकार का संहनन नहीं होता। सिद्धों के शरीर ही नहीं होता। इसलिए वहां संहनन होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, असंज्ञी तिर्यंच
और असंज्ञी मनुष्य में एक सेवार्त संहनन होता है। संज्ञी तिर्यंच और संज्ञी मनुष्य में छहों संहनन पाए जाते हैं । यौगलिक मनुष्य और तिरेसठ शलाका पुरुषों में एक मात्र वज्रऋषभनाराच संहनन होता है।
२४. संस्थान के छह प्रकार हैं१. समचतुरस्त्र ४. कुब्ज २. न्यग्रोधपरिमण्डल ५. वामन ३. सादि
६. हुण्डक संस्थान का अर्थ है आकृति । प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ है अवयवों की रचना। किस शरीर के अवयवों की रचना कैसी है, इसकी जानकारी संस्थानों के
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