________________
२३. संहनन के छह प्रकार हैं१. वज्रऋषभनाराच ४. अर्धनाराच २. ऋषभनाराच ५. कीलिका ३. नाराच
६. सेवार्त संहनन का अर्थ है शरीर की अस्थि-संरचना। देव और नरक गति के जीव वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। उस शरीर में हाड, मांस आदि सातों ही धातुएं नहीं होती, इसलिए वहां अस्थि-संरचना का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। मनुष्य और तिर्यंच गति में उत्पन्न होने वाले जीवों के औदारिक शरीर होता है। यह शरीर हाड, मांस आदि धातुओं से निर्मित होता है । अतः उक्त छहों संहनन इसी शरीर में प्राप्त होते हैं । अस्थि-संरचना का क्रमिक विकास इस प्रकार होता है
• कुछ शरीरों में अस्थियां परस्पर जुड़ी हुई नहीं होती, आमने-सामने होती
हैं। केवल बाहर से शिरा, स्नायु, मांस आदि लिपट जाने के कारण संघटित होती हैं। इस प्रकार की अस्थि-संरचना को सेवार्त' कहा गया है। यह सबसे दुर्बल अस्थि-संरचना है। 'धवला' में उसकी तुलना परस्पर असंप्राप्त और शिराबद्ध सर्प की अस्थियों से की गई है। एक अस्थि-रचना ऐसी होती है, जिसमें अस्थियों के छोर परस्पर जुड़े हुए होते हैं-एक दूसरे का स्पर्श किये होते हैं, उसे 'कीलिका' कहा
गया है। • एक अस्थि-रचना ऐसी होती है, जिसमें नाराच (मर्कटबन्ध) आधा होता है---अस्थियों के छोर परस्पर एक ओर से गुंथे हुए होते हैं, उसे अर्धनाराच कहा गया है। एक अस्थि-रचना ऐसी होती है, जिसमें नाराच (मर्कटबन्ध) पूरा होता हो–अस्थियां दोनों ओर से गुंथी हुई होती हैं, उसे 'नाराच' कहा गया
एक अस्थि-रचना ऐसी होती है, जिसमें परस्पर गुंथे हुए दोनों अस्थियों के छोरों पर तीसरी अस्थि का परिवेष्टन होता है, उसे 'ऋषभनाराच' कहा गया है। एक अस्थि-रचना ऐसी होती है, जिसमें उक्त तीनों अस्थियों को भेदकर अस्थिकील(बोल्ट) आर-पार कसा हुआ होता है । उसे 'वज्रऋषभनाराच'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org