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९२ / जैनतत्त्वविद्या होता। दसवें गुणस्थान से ग्यारहवें में जाने वाला जीव उपशम श्रेणी में स्थित होता है। वह सूक्ष्म लोभरूप मोह का उपशमन करता है । जो जीव क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है, वह मोह कर्म का क्षय कर ग्यारहवें गुणस्थान को लांघकर बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है । इस गुणस्थान में राग-द्वेष नहीं रहते, फिर भी छद्मस्थता बनी रहती है। जब तक ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का उदय रहता है, तब तक केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हो सकता। इसलिए ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान के वीतराग छद्मस्थ वीतराग कहलाते हैं।
तेरहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय आदि तीनों घात्य कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। केवलदर्शन केवलज्ञान का सहचारी है। केवलज्ञान
और केवलदर्शन प्राप्त होने के बाद कभी जाते नहीं। ये सिद्धावस्था में भी साथ रहते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के वीतराग केवली वीतराग कहलाते हैं।
२२. बंध के दो प्रकार हैं१. ईर्यापथिक
२. साम्परायिक कर्म का बन्ध तेरहवें गुणस्थान तक निरन्तर होता है । जो बन्ध सकषायी या सराग के होता है, उसे साम्परायिक बन्ध कहा जाता है। अकषायी या वीतराग के जो बन्ध होता है, उसे ईर्यापथिक बन्ध कहा जाता है। ईर्यापथ का अर्थ है योग । योग अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्ति । कषाय रहित योग से जो बन्ध होता है, वही ईर्यापथिक बन्ध कहलाता है। यह ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक होता है। इन गुणस्थानों में आसक्ति या कषाय का अत्यन्त अभाव होने पर भी योगों की चंचलता के कारण बन्धन होता है । कषायजनित स्निग्धता के अभाव में यह बन्धन टिकाऊ नहीं होता। जैसे-रूखी दीवार पर मिट्टी फेंकी जाए तो वह एक बार वहां चिपकती है, किन्तु तत्काल झड़कर अलग हो जाती है। इसी प्रकार वीतराग के कर्मपुद्गलों का स्पर्शमात्र होता है । यह बन्ध दो समय की स्थिति वाला होता है। जिस आत्मा में कषाय की चिकनाहट रहती है, उसके कर्म का बन्धन टिकाऊ होता है। चिकनाहट जितनी अधिक होगी, बन्धन की दृढ़ता भी उतनी ही अधिक होगी। यह बन्ध संसार के उन सब प्राणियों के होता है, जो सकषायी होते हैं।
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