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८४ / जैनतत्त्वविद्या
१४. क्रिया के पांच प्रकार हैं१. कायिकी ४. पारितापनिकी २. आधिकरणिकी ५. प्राणातिपातक्रिया ३. प्रादोषिकी
अथवा १. आरम्भिकी ४. अप्रत्याख्यान क्रिया २. पारिग्रहिकी
५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया ३. मायाप्रत्यया क्रिया का अर्थ है—कर्म बन्धन की प्रवृत्ति । नौ तत्त्वों में कर्म-बन्धन के हेतुभूत तत्त्व को आश्रव माना गया है। इस अपेक्षा से आश्रव और क्रिया में कोई अन्तर नहीं है। कुछ ग्रन्थों में आश्रव के बयालीस भेद बताए गए हैं। उनमें पचीस प्रकार की क्रियाओं का समावेश किया गया है। उन पचीस क्रियाओं में से दस प्रकार की क्रियाओं का उल्लेख इस बोल में किया गया है। उन दस क्रियाओं को पांच-पांच क्रियाओं में वर्गीकृत कर यहां निरूपित किया गया है। प्रथम वर्ग की पांच क्रियाएं
कायिकी- हिंसा आदि में प्रवृत्त काया से होने वाली क्रिया। आधिकरणिकी- शरीर या किसी उपकरण का शस्त्र रूप में प्रयोग करने
से होने वाली क्रिया। प्रादोषिकी- कषाय से होने वाली क्रिया। पारितापनिकी-. किसी प्राणी को परिताप-कष्ट पहुंचाने से होने वाली
क्रिया। प्राणातिपातक्रिया-- प्राणों का अतिपात–वियोजन करने से होने वाली
क्रिया। प्रकारान्तर से क्रियाओं का एक वर्ग यह बतलाया गया हैआरंभिकी- हिंसात्मक प्रवृत्ति से होने वाली क्रिया। पारिग्रहिकी- परिग्रह से होने वाली क्रिया। मायाप्रत्यया- कषाय से होने वाली क्रिया। अप्रत्याख्यानक्रिया- अत्याग-भाव से होने वाली क्रिया। मिथ्यादर्शनप्रत्यया-- मिथ्यात्व से होने वाली क्रिया।
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