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वर्ग २. बोल १५ । ८५ उक्त दोनों ही प्रकार की क्रियाओं से कर्म का बन्धन होता है। इसलिए ये त्याज्य हैं। सामान्यत: जीव कोई भी क्रिया करता है तो कम-से-कम तीन क्रियाएं अवश्य होती हैं । कदाचित् चार और पांच क्रियाएं भी एक साथ हो सकती हैं। इन सब क्रियाओं को छोड़कर अक्रिय बनने वाला प्राणी ही बन्धन से मुक्ति की ओर प्रयाण कर सकता है।
१५. संज्ञा के दस प्रकार हैं१. आहार ६. मान २. भय
७. माया ३. मैथुन ८. लोभ ४. परिग्रह ९. लोक (विशिष्ट या अर्जित वृत्ति)
५. क्रोध १०. ओघ (सामान्य या नैसर्गिक वृत्ति) जीव की एक विशेष प्रकार की वृत्ति का नाम संज्ञा है। यह संसार के बहुसंख्यक प्राणियों में पायी जाती है। किसी प्राणी में ये संज्ञाएं बहुत गहरी होती हैं तो किसी में बहुत साधारण । छोटे-बड़े प्राय: सभी प्राणियों में पायी जाने वाली यह संज्ञा आखिर है क्या? इस प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में संज्ञा की अनेक परिभाषाएं उभर कर सामने आ जाती हैं। उनमें से कुछ परिभाषाएं ये हैं
• जिससे जाना जाता है, संवेदन किया जाता है, वह संज्ञा है। • मानसिक ज्ञान अथवा समनस्कता का नाम संज्ञा है।
भौतिक वस्तु की प्राप्ति तथा प्राप्त वस्तु के संरक्षण की व्यक्त अथवा
अव्यक्त अभिलाषा का नाम संज्ञा है। • वेदनीय अथवा मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी में आहार आदि की
प्राप्ति के लिए जो स्पष्ट और अस्पष्ट व्यग्रता अथवा सक्रियता रहती है, वह संज्ञा है। मनोविज्ञान की भाषा में प्राणी जगत् की जो मूल वृत्तियां हैं, उन्हीं को
जैन सिद्धान्त संज्ञा के रूप में प्रतिपादित करता है। ज्ञान, संवेदना, अभिलाषा, चित्त की व्यग्रता या मूल वृत्ति, किसी भी शब्द का प्रयोग हो, मूल बात यह है कि प्राणी एक ऐसी स्थिति से गुजरता है, जो उसका स्वभाव न होने पर भी स्वभाव जैसी लगने लगती है। जैसे हर प्राणी में काम, क्रोध
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