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________________ १२. कर्म बंध के आठ हेतु हैं १. ज्ञानावरणीय कर्म - ज्ञान के प्रति असद् व्यवहार २. दर्शनावरणीय कर्म-दर्शन के प्रति असद् व्यवहार ३. वेदनीय कर्म - दुःख देने और दुःख न देने की प्रवृत्ति ४. मोहनीय कर्म - तीव्र कषाय का प्रयोग ५. आयुष्य 'कर्म नरक आयुष्य तिर्यंच आयुष्य - ----- - मनुष्य आयुष्य - देव आयुष्य Jain Education International क्रूर व्यवहार वंचनापूर्ण व्यवहार ऋजु व्यवहार संयत व्यवहार ६. नाम कर्म - कथनी-करनी की समानता और असमानता ७. गोत्र कर्म - अहंकार और अहंकार का विसर्जन ८. अन्तराय कर्म - किसी के कार्य में बाधा डालना कर्म के सम्बन्ध में बहुत चर्चा हो जाने पर भी एक प्रश्न ज्यों-का-त्यों खड़ा है। वह है बन्धन की प्रक्रिया से सम्बन्धित । आत्मा के साथ कर्म का बन्धन क्यों होता है ? बन्धन सहेतुक है या निर्हेतुक ? वह आमन्त्रित होता है या अनायास हो जाता है ? आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है। जड़ और चेतन का योग संभव है क्या ? इन प्रश्नों का समाधान बारहवें बोल में दिया गया है। 'न हि अकारणं कार्य भवति' - कारण के बिना कार्य नहीं हो सकता, यह शाश्वत नियम है। इसी के आधार पर कारण- कार्यवाद की परम्परा चली। कर्म-बन्धन भी अकारण नहीं है । यदि इसे अकारण मान लिया जाए तो सिद्धों के भी कर्म - बन्धन का प्रसंग उपस्थित हो जाता है । इसलिए हमें बन्धन के हेतुओं पर विचार करना होगा । कर्म-बन्धन का मूल कारण है आश्रव । आश्रव पांच हैं - मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग । प्रथम चार आश्रव अव्यक्त हैं और योग आश्रव व्यक्त है । कर्म पुद्गलों को ग्रहण करने का सर्वाधिकार इसी योग आश्रव को प्राप्त है। योग तीन प्रकार का होता है— मन योग, वचन योग और काय योग। इन तीनों में काय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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