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________________ ८० / जैनतत्त्वविद्या किया गया है। अब प्रश्न यह होता है कि सब कर्मों का बंध एक साथ ही होता है या अलग-अलग भी होता है ? इस प्रश्न का उत्तर ग्यारहवें बोल में दिया गया है। इसके अनुसार कम-से-कम एक कर्म का और अधिक-से-अधिक आठों कर्मों का बंध एक साथ हो सकता है। कर्म-बंध के इस वर्गीकरण के लिए आधार बनाया गया है गुणस्थानों को । किस गुणस्थान में कितने कर्मों का बंध होता है ? इस विवक्षा से कर्म-बंधन के चार विकल्प बनते हैं। १. ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में एक ही कर्म का बंध होता है। एक वेदनीय कर्म, वह भी केवल सात वेदनीय, वह भी दो समय की स्थिति वाला। एक दृष्टि से देखा जाये तो वह नाम मात्र का बंधन है । प्रथम समय में उसका बंधन होता है। दूसरे समय वह भोग में आता है और तीसरे समय क्षीण हो जाता है। कर्म को टिकाकर रखने वाला तत्त्व है कषाय। इन गुणस्थानों में होने वाला बन्धन कषाय से नहीं, योग से होता है, इसलिए उसमें स्थायित्व नहीं होता। २. दसवें गुणस्थान का नाम है सूक्ष्मसम्पराय। वहां आयुष्य और मोह के अतिरिक्त छह कर्मों का बंधन प्रतिसमय होता रहता है। मोह कर्म का बंध कषाय की तीव्रता से होता है। दसवें गुणस्थान तक कषाय रहता है, पर वह वहां अत्यन्त सूक्ष्म या मंद हो जाता है। मोह-कर्म की वर्गणा को आकृष्ट करने में जितने प्रबल कषाय का योग होना चाहिए, वह वहां नहीं रहता। इसलिए दसवें गुणस्थान में छह ही कर्मों का बंधन होता है। ३. तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में सात कर्मों का बंधन होता है। तीसरे गुणस्थान में अध्यवसायों की अस्थिरता होने के कारण आयुष्य कर्म का बंधन नहीं होता। अप्रमत्त अवस्था से आगे आयुष्य का बंध संभव नहीं है। इस दृष्टि से इन तीन गुणस्थानों में सात कर्मों का बंधन होता है। ४. पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में आठ या सात कर्मों का बंधन होता है । सात कर्मों का बंध प्रतिक्षण होता है। आयुष्य कर्म का बंध जीवन में एक बार ही होता है । इस दृष्टि से आयुष्य-बंधन के समय आठ कर्मों का बंधन होता है और अन्य समय में सात कर्मों का बंधन होता है। चौदहवें गुणस्थान में बन्धन के निमित्त कषाय और योग दोनों का अभाव है, इसलिए वहां किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता। नये सिरे से बन्धन न होने का कारण उस गुणस्थान का जीव भवोपग्राही अघात्य कर्मों के टूटते ही मुक्त हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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