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वर्ग २, बोल ११ / ७९ के विकास में तारतम्य रहता है, उसका कारण कर्मों का उदय है । कर्मों का जितना-जितना क्षयोपशम होता है, हल्कापन होता है, विकास की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है। आकाश में सूर्य होता है। मेघघटा उसे आच्छादित कर देती है। इससे सूर्य का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, पर वह पर्याप्त प्रकाश करने में अक्षम हो जाता है। जैसे-जैसे बादल छिन्न-भिन्न होते हैं, प्रकाश अधिक हो जाता है। आवारक कर्म ज्ञान-सूर्य को कमोबेस रूप में आच्छादित कर अपना प्रभाव दिखाते हैं।
विकारक कर्म आत्म-गुणों में विकार उत्पन्न करता है। इससे आत्मा अपने मूल स्वरूप को विकृत कर विवेक-चेतना खो बैठती है। यह काम मोह कर्म का है। इससे मूढ़ता की स्थिति उत्पन्न होती है।
___ अवरोधक कर्म आत्मशक्ति की उपलब्धि में बाधक बनता है। यह काम अन्तराय कर्म का है । इस कर्म के उदय से आत्मा में निहित शक्तियों का भी प्रस्फोट या उपयोग नहीं हो सकता।
शुभ-अशुभ संयोग में निमित्त बनते हैं चार अघात्य कर्म । ये कर्म आत्म गुणों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते। पर देह-संरचना, सम्मान, प्रतिष्ठा आदि के भाव और अभाव में इनका पूरा हाथ रहता है । वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य-ये चार कर्म आत्मा के शुभ और अशुभ संयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते
हैं।
११. कर्म-बंध के चार विकल्प१. एक कर्म (सात वेदनीय) का बन्ध
ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में। २. छह कर्मों (मोहनीय और आयुष्य को छोड़कर) का बन्ध
__ दसवें गुणस्थान में। ३. केवल सात कर्मों (आयुष्य को छोड़कर) का बन्ध
तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में। ४. आठ-सात कर्मों का बन्ध
___पहले, दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें
गुणस्थान में। पिछले बोलों में कर्म, कर्म-बंध के हेतु और कर्मों की प्रकृतियों का विवेचन
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