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७८ / जैनतत्त्वविद्या
• संक्रमण का अर्थ है एक का दूसरे में परिवर्तन । एक ही कर्म की
भिन्न-भिन्न प्रकृतियां जब परस्पर संक्रान्त हो जाती हैं, तब उस स्थिति को ‘संक्रमण' कहा जाता है।
आठ कर्मों में सर्वाधिक सक्षम मोहनीय कर्म को दबाना—उसे अकिंचित्कर बना देना उपशम' है। आत्मा और कर्म के संबंध को गाढ़ बनाने का नाम 'निधत्ति' है। आत्मा और कर्म के संबंध को इतना प्रगाढ़ बना देना, जहां स्थिति आदि
में न्यूनता-अधिकता हो ही न सके, वह 'निकाचना' है। - इस प्रकार कर्म की और भी अवस्थाएं हो सकती हैं, पर यहां दस अवस्थाओं की ही चर्चा है।
१०. कर्म के चार कार्य हैं१. आवरण
३. अवरोध २. विकार
४. शभाशभ का संयोग अर्थक्रियाकारित्व पदार्थ का लक्षण है। कोई भी पदार्थ हो, वह अपना काम करता रहता है । कर्म भी एक अस्तित्ववान् पदार्थ है । वह भी प्रतिक्षण अपना काम करता रहता है । इस वर्ग के छठे बोल में कर्म की मूलभूत आठ प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। वे प्रकृतियां आत्मा से संबद्ध होकर कर्म कहलाती हैं। जब तक उनका आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं होता, वे कर्मवर्गणा के रूप में रहती हैं, पर कर्म के रूप में परिणत नहीं होतीं। प्रश्न यह है कि कर्म का काम क्या है? वे आत्मा पर क्या प्रभाव डालते हैं ? इस प्रश्न का समाधान इस बोल में है।
कर्मों के चार कार्य हैंआवरण- आत्मा के मूल गुणों को आच्छादित करना। विकार-आत्मा के मूल गुणों को विकृत करना। अवरोध-आत्मा के विकास में बाधा डालना। शुभाशुभ का संयोग-आत्मा के शुभ और अशुभ संयोग में निमित्त बनना।
आवरण का काम करने वाले कर्म ज्ञानावरण और दर्शनावरण कहलाते हैं। ये आत्मा के मूल गुण-ज्ञान और दर्शन को आवृत करते हैं। यद्यपि ज्ञान और दर्शन आत्मा के सहज धर्म हैं. फिर भी व्यक्ति-व्यक्ति की ज्ञान-चेतना और दर्शन-चेतना
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