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________________ १. बंध ९. कर्म की दस अवस्थाएं हैं ६. अपवर्तन २. सत्ता ७. संक्रमण ३. उदय ८. उपशम ४. उदीरणा ९. निधत्ति ५. उद्वर्तन १०. निकाचना हर पदार्थ की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती हैं, पर्याय होती हैं। पदार्थ है तो पर्याय का होना जरूरी है। क्योंकि कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं होता, जिसमें रूपान्तरण न हो, बदलाव न हो, पर्याय का परिवर्तन न हो । पर्याय का अर्थ है-पूर्व अवस्था का परित्याग और नयी अवस्था का स्वीकार । हर पदार्थ की पर्याय अनन्त हैं, इस दृष्टि से कर्म की पर्याय भी अनन्त हैं। किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में जो वर्गीकरण किया गया है, वह स्थूल अवस्थाओं की दृष्टि से है। संसारी जीव कर्म सहित होते हैं। कर्म के संयोग से वे विविध अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं और जीव के पुरुषार्थ से कर्म की विविध अवस्थाएं हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है—जीव का योग पाकर कर्म वर्गणा के पुद्गल कर्म हैं और कर्मों के योग से जीव, संसारी जीव हैं। • कर्मों की दस अवस्थाओं में सबसे पहली अवस्था है 'बंध' । यह आत्मा और कर्मों के एकीभूत होने की अवस्था है। • बंध के बाद जब तक कर्म फल नहीं देते, वे आत्मा से संलग्न रहते हैं। उस समय उनका अस्तित्व है, पर वे सक्रिय नहीं होते। इस दृष्टि से इस अवस्था को 'सत्ता' के रूप में माना गया है। आत्मा के साथ एकीभूत कर्म सक्रिय हो जाता है, फलदान में प्रवृत्त हो जाता है, उस स्थिति को 'उदय' कहते हैं। • निश्चित उदय काल से पहले विशेष पुरुषार्थ का प्रयोग कर कर्मों को उदय में ले आना 'उदीरणा' है। जिस कर्म की जितनी स्थिति बंधी हुई है और जैसा रस है उसे किसी निमित्त से बढ़ा देना 'उद्वर्तन' है। कर्मों की बंधी हुई स्थिति और उसके रस को उससे कम कर देना 'अपवर्तन' है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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