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________________ ७६ / जैनतत्वविधा बिना किसी बड़े आदमी से मिलना सम्भव नहीं होता। उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के उदय से देखने अथवा पदार्थ का सामान्य ज्ञान करने में अवरोध उपस्थित हो जाता है। वेदनीय कर्म मधुलिपटी तलवार की धार के समान है । मधु का आस्वादन सातवेदनीय कर्म है और जीभ का कटना असातवेदनीय का संवेदन है। मोहनीय कर्म मद्यपान के समान है। जैसे मदिरा पीने वाला व्यक्ति अपनी सुध-बुध खो देता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से चेतना विकृत होती है, व्यक्ति मूढ़ बनता है और अपने हिताहित का विवेक खो देता है। आयुष्य कर्म बेड़ी के समान है। बेड़ी में बंधा हुआ व्यक्ति उसे तोड़े बिना मुक्त नहीं हो सकता। उसी प्रकार आयुष्य कर्म का भोग किए बिना प्राणी एक भव से दूसरे भव में नहीं जा सकता। नामकर्म चित्रकार के समान है। चित्रकार अपनी कल्पना की उपज से नये-नये चित्रों का निर्माण करता है । वैसे ही नाम कर्म शरीर, संस्थान आदि की संरचना को अनेक रूप देता है। गोत्र कर्म कुम्भकार के समान है। जिस प्रकार कुम्भकार छोटे-बड़े मनचाहे घड़े बनाता है, वैसे ही गोत्र कर्म के उदय से प्राणी ऊंच-नीच आदि बनते हैं। अन्तराय कर्म कोषाध्यक्ष के समान है । अधिकारी का आदेश प्राप्त होने पर भी कोषाध्यक्ष के दिए बिना वांछित वस्तु नहीं मिलती । इसी प्रकार सब सुविधाएं सुलभ होने पर भी अन्तराय कर्म दूर हुए बिना उनका भोग नहीं हो सकता। इन आठों कर्मों के फलदान सम्बन्धी दृष्टान्तों का अवबोध व्यक्ति को कर्मबन्धनमूलक प्रवृत्तियों से दूर हटाने में सहायक बन सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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