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वर्ग २, बोल ८/७५
८. कर्म के आठ दृष्टान्त हैं१. ज्ञानावरणीय कर्म - आंख की पट्टी के समान २. दर्शनावरणीय कर्म - प्रहरी के समान ३. वेदनीय कर्म - मधुलिपटी तलवार की धार के समान ४. मोहनीय कर्म मद्यपान के समान ५. आयुष्य कर्म बेड़ी के समान ६. नाम कर्म - चित्रकार के समान ७. गोत्र कर्म - कुंभकार के समान ८. अन्तराय कर्म - कोषाध्यक्ष के समान
आत्मा की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति के द्वारा कर्मवर्गणा आकृष्ट होती है और वह आत्मा के साथ संपृक्त होकर कर्म कहलाती है । आत्मा से संश्लिष्ट होते ही कर्म अपना प्रभाव नहीं दिखाते । एक निश्चित समय तक वे आत्मा से चिपके रहते हैं। इस स्थिति को अबाधा, सत्ता या अनुदयावस्था कहा जाता है। इस अवस्था को छोड़कर कर्म जिस क्षण उदय में आते हैं, उसी क्षण से अपना काम करना शुरू कर देते हैं । कर्म का संवेदन करने वाला या उसका फल भोगने वाला कुछ समझे या नहीं, फल भोग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है । साधारण व्यक्ति इस प्रक्रिया को समझ सके, इस दृष्टि से शास्त्रों में कुछ दृष्टान्त बताए गए हैं। यद्यपि दृष्टान्त एकदेशीय होते हैं । वे अपने प्रतिपाद्य को समग्रता से अभिव्यक्ति नहीं दे सकते। पर आंशिक रूप से जितना स्पष्ट अवबोध उदाहरणों से होता है, परिभाषाओं से नहीं हो सकता। इसलिए गूढ़ और सूक्ष्म रहस्यों को समझाने के लिए दृष्टान्तों को काम में लिया जाता है।
इस बोल में प्रत्येक कर्म की फल देने की प्रक्रिया उदाहरण के माध्यम से निरूपित है।
• ज्ञानावरणीय कर्म आंख की पट्टी के समान है। आंख पर पट्टी बांध
लेने से दृश्य पदार्थ और आंख के मध्य आवरण आ जाता है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्राणी की ज्ञानचेतना आवृत हो
जाती है। यह कर्म जानने में बाधा पहुंचाता है । • दर्शनावरणीय कर्म प्रहरी के समान है । जिस प्रकार प्रहरी की अनुमति
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