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७४ / जैनतत्त्वविद्या उदय से मानसिक संक्लेश और शारीरिक कष्ट का अनुभव होता है।
मोहनीय कर्म की दो प्रकृतियां हैं --दर्शन-मोहनीय और चारित्र मोहनीय । मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां भी प्रसिद्ध हैं। उनमें दर्शन-मोहनीय की तीन प्रकृतियां हैं और चारित्र-मोहनीय की पच्चीस । पर यहां उन्हें विवक्षित नहीं किया गया है । दर्शन-मोहनीय सम्यक्त्व का बाधक है और चारित्र मोहनीय संयम का। ___आयुष्य कर्म की चार प्रकृतियां हैं-नरक आयुष्य, तिर्यञ्च आयुष्य, मनुष्य आयुष्य और देव आयुष्य । पूर्व निबद्ध आयुष्य कर्म पूरा भोग लेने के बाद ही जीव एक भव से दूसरे भव में जा सकता है । आयुष्य कर्म का सम्पूर्ण क्षय मोक्ष है।
नाम कर्म की एक सौ बयालीस प्रकृतियों का उल्लेख शास्त्रों और ग्रन्थों में मिलता है। यहां उसकी दो प्रकृतियां बताई गई हैं-शुभ नाम और अशुभ नाम। शुभ नाम कर्म के उदय से जीव को गति, जाति, शरीर, संस्थान आदि अच्छे प्राप्त होते हैं और अशुभ नाम कर्म के उदय से ये सब अशुभ हो जाते हैं।
गोत्र कर्म की दो प्रकृतियां हैं--उच्च गोत्र और नीच गोत्र । ये दोनों गोत्र एक ही जीव में पाए जा सकते हैं और स्वतन्त्र रूप से भी पाए जा सकते हैं । एक व्यक्ति ज्ञान-सम्पन्न है पर रूप-सम्पन्न नहीं है तो वह दोनों प्रकृतियों को एक साथ भोगता
अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियां हैं-दान अन्तराय, लाभ अन्तराय, भोग अन्तराय, उपभोग अन्तराय और वीर्य अन्तराय । अन्तराय का अर्थ है-बाधा । वीर्य आत्मा का गुण है । उसकी उपलब्धि और उपयोग अन्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से ही संभव है। दान, लाभ, भोग और उपभोग-ये कोई मौलिक गुण नहीं हैं। अमूर्त वीर्य को मूर्त प्रतीकों से समझाने की दृष्टि से ये भेद किए गए हैं।
दानान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से जो औदार्य गुण प्रकट होता है, वह एक प्रकार की क्षमता ही है । वस्तु प्राप्त करने की क्षमता लाभान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से मिलती है। पदार्थ प्राप्त होने पर भी बहुत से लोग उनके उपभोग से वंचित रह जाते हैं। पदार्थ के भोगोपभोग की क्षमता भी इसी कर्म के क्षय-क्षयोपशम से उपलब्ध होती है । इस कर्म की प्रकृतियों में वीर्यान्तराय प्रकृति प्रमुख है। अन्य प्रकृतियां गौण हैं।
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