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________________ वर्ग २, बोल ७/ ये आठों भेद कर्म की मूल प्रकृतियां हैं। इन प्रकृतियों के उत्तर भेद अनेक हैं । ज्ञान के जितने भेद हो सकते हैं, उनके साथ आवरण शब्द जोड़ कर ज्ञानावरण के उपभेद किए जा सकते हैं । इस क्रम से कर्म की उत्तर प्रकृतियां किसी संख्या में आबद्ध नहीं हो सकतीं । विशद विवेचन किया जाए तो कर्म की सैकड़ों प्रकृतियां अपनी निश्चित पहचान बनाए हुए हैं । प्रस्तुत पाठ में संक्षेप और विस्तार दोनों विवेचनों से हटकर मध्य का मार्ग स्वीकार किया गया है। इसमें कर्म की इकतीस प्रकृतियों का उल्लेख है। ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियां हैं- मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । ज्ञान के मुख्य भेद ये पांच हैं, इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म की मुख्य प्रकृतियां पांच हो गईं। दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियां हैं-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि। दर्शनावरण का अर्थ है-साक्षात्कार में बाधा । जिस प्रकार चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण आदि के उदय से इन्द्रियों द्वारा होने वाले विषय के साक्षात्कार में बाधा उपस्थित होती है, उसी प्रकार निद्रा आदि पांच प्रकृतियों के उदय से भी साक्षात्कार में बाधा पहुंचती है। निद्रा दर्शनावरण की वह प्रकृति है, जो सुख से आती है और सुख से चली जाती है । निद्रानिद्रा प्रकृति का उदय होने से नींद आती तो सुख से है, पर टूटती बहुत मुश्किल से है । बैठे-बैठे नींद आना प्रचला है और खड़े या चलते समय आने वाली नींद प्रचलाप्रचला है । स्त्यानर्द्धि निद्रा कुछ विचित्र प्रकार की है। इस नींद में व्यक्ति कुछ भी कर लेता है, पर उसे उसका भान नहीं होता । युद्ध जैसी क्रूर प्रवृत्ति करने के बाद भी वह यन्त्रवत् अपने स्थान पर लौटकर सो जाता है। उस समय उसकी चेतना प्रगाढ़ मूर्छा से घिर जाती है । मूर्छा टूटती है तब उसे अनुभव होता है मानो वह कोई स्वप्न देख रहा हो। किन्तु वह कल्पना या स्वप्न नहीं होता। निद्रा की प्रगाढ़ अवस्था में घटित होने के कारण उसमें स्वप्न का प्रतिभास होता है। वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियां हैं—सातवेदनीय और असातवेदनीय । सांसारिक प्राणी सुख या दुःख इन दोनों में से एक का वेदन अवश्य करता है। सातवेदनीय के उदय से शारीरिक और मानसिक सुख की अनुभूति होती है। असात-वेदनीय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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