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________________ ७२ / जैनतत्वविधा ७. कर्म की इकतीस उत्तर प्रकृतियां हैंज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियां हैं १. मतिज्ञानावरण ४. मन:पर्यवज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ५. केवलज्ञानावरण ३. अवधिज्ञानावरण दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियां हैं १. चक्षुदर्शनावरण ६. निद्रानिद्रा २. अचक्षुदर्शनावरण ७. प्रचला ३. अवधिदर्शनावरण ८. प्रचलाप्रचला ४. केवलदर्शनावरण ९. स्त्यानर्द्धि ५. निद्रा वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियां हैं १. सात वेदनीय २. असात वेदनीय मोहनीय कर्म को दो प्रकृतियां हैं १. दर्शन मोहनीय २. चारित्र मोहनीय आयुष्य कर्म की चार प्रकृतियां हैं १. नरक आयुष्य ३. मनुष्य आयुष्य २. तिर्यच आयुष्य ४. देव आयुष्य नाम कर्म की दो प्रकृतियां हैं १. शुभ नाम २. अशुभ नाम गोत्र कर्म की दो प्रकृतियां हैं १. उच्च गोत्र २. नीच गोत्र अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियां हैं १. दान अन्तराय ४. उपभोग अन्तराय २. लाभ अन्तराय ५. वीर्य अन्तराय ३. भोग अन्तराय दूसरे वर्ग के छठे बोल के विश्लेषण में यह बताया जा चुका है कि मूलत: कर्म एक ही है, फिर भी कार्य की अपेक्षा से उसके आठ भेद किए गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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