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वर्ग २, बोल ६ / ७१ आत्मा की अन्य क्षमताओं पर आवरण डालने वाले या उन्हें अवरुद्ध करने वाले पुद्गल-समूह को अन्य कर्मों के नाम से भी अभिहित किया जा सकता है, पर ऐसा करने से कर्मों की संख्या गणना की सीमा के बाहर हो जाती । इसलिए संक्षेप में उनके आठ प्रकार बताकर अन्य प्रकारों को उन्हीं में अन्तर्गर्भित कर दिया गया है। जब तक ये कर्म आत्मा के साथ एकीभूत रहेंगे, तब तक प्राणी को संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा। कर्मों के बन्धन से छूटते ही आत्मा मुक्त हो जाती है, अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। जैनदर्शन में कर्म-सिद्धान्त की जितनी सूक्ष्म मीमांसा की गई है, अन्य किसी दर्शन में उसे इस प्रकार समझाने का प्रयास आज तक नहीं हुआ है।
उक्त आठ कर्मों में सभी कर्म अशुभ तो हैं ही। पर इनमें चार शुभ भी हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार कर्म एकान्त अशुभ हैं । वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र—ये चार कर्म शुभ एवं अशुभ दोनों हैं।
ज्ञानावरणीय आदि एकान्त अशुभ कर्मों को घनघात्य कर्म कहा जाता है। घात्य, घाती या घनघात्य पर्यायवाची शब्द हैं। आत्मा के मौलिक गुणों की घात करने वाले कर्म घात्य या घाती कहलाते हैं अथवा सघन प्रयत्न के द्वारा ही इन कर्मों की घात हो सकती है, इसलिए इन्हें घनघात्य कहा जाता है।
शेष चार कर्म आत्मा के मौलिक गुणों की घात नहीं करते, इसलिए इन्हें अघात्य कर्म कहा जाता है । आत्मगुणों की घात न करने पर भी जीव के भव-भ्रमण में इनका पूरा-पूरा हाथ रहता है । इस दृष्टि से इन्हें भवोपनाही कर्म भी कहा जाता
घात्य कर्मों का क्षय कर देने के बाद भी प्राणी की मुक्ति नहीं होती। क्योंकि वह भवोपग्राही कर्मों के बन्धन को नहीं तोड़ सका है। तीर्थंकर और केवली भी जब तक इनसे मुक्त नहीं होते, उन्हें संसार में रहना पड़ता है।
मोहनीय कर्म ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का अस्तित्व बारहवें गुणस्थान तक है। शेष चार भवोपग्राही कर्म चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक बने रहते हैं। चौदहवें गुणस्थान को पार करना, चार अघात्य कर्मों को क्षीण करना और मुक्त होना-ये सब काम एक साथ एक समय में घटित हो जाते हैं।
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