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७० / जैनतत्त्वविद्या
६. कर्म के आठ प्रकार हैं१. ज्ञानावरणीय ५. आयुष्य २. दर्शनावरणीय
६. नाम ३. वेदनीय
७. गोत्र ४. मोहनीय
८. अन्तराय आठ कर्मों में चार घनघात्य प्रकृतियां एकांत अशुभ हैं
१. ज्ञानावरणीय ३. मोहनीय
२. दर्शनावरणीय ४. अन्तराय आठ कर्मों में चार प्रकृतियां शुभ-अशुभ दोनों हैं१. वेदनीय
३. गोत्र २. नाम
४. आयुष्य इस वर्ग के तीसरे बोल में पुद्गल की आठ वर्गणाएं बताई गई हैं। उनमें एक वर्गणा है-कार्मण वर्गणा। यह वर्गणा कार्मण शरीर के रूप में परिणत होती है। इसका सम्बन्ध कर्म से है। कर्म क्या है ? प्राणी की अपनी शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट पुद्गल स्कन्ध (कर्म वर्गणा) जो आत्मा के साथ एकीभूत हो जाता है, कर्म कहलाता है। कर्म मूलत: एक ही प्रकार का होता है। फिर भी छठे बोल में उसके आठ प्रकार बतलाए गए हैं। यह विभाग कर्मों के कार्य की अपेक्षा . से है।
• आत्मा की ज्ञान-चेतना को आवृत करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म है। • आत्मा की दर्शन-चेतना को आवृत करने वाला दर्शनावरणीय कर्म है। • सुख और दुःख की अनुभूति में हेतुभूत बनने वाला वेदनीय कर्म है। • चेतना को विकृत या मूर्च्छित करने वाला मोहनीय कर्म है। किसी एक गति में निश्चित अवधि तक बांध कर रखने वाला आयुष्य
कर्म है। • शरीर-संरचना की प्रकृष्टता या निकृष्टता का कारण नाम कर्म है।
जीव को अच्छी या बुरी दृष्टि से देखे जाने में निमित्त बनने वाला गोत्र
कर्म है। • आत्म-शक्ति की उपलब्धि में बाधा पहुंचाने वाला अन्तराय कर्म है।
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