SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अब ६८ / जैनतत्त्वविद्या पुद्गलों के संघर्षण से जो ध्वनि होती है, वह अजीव शब्द है । वीणा, झालर, ताल, कांस्य आदि के शब्द अजीव शब्द हैं। खटपट करना, चुटकी बजाना, पांव पटकना आदि क्रियाओं से जो शब्द होता है, वह भी अजीव शब्द है। उपर्युक्त आठ स्थानों और वाद्यों का योग होने पर जो शब्द निकलता है, वह मिश्र शब्द है। अब प्रश्न यह है कि शब्द का उपयोग क्या है? शब्द सार्थक भी होते हैं और निरर्थक भी। निरर्थक शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता, कोई उपयोग नहीं होता। पर सार्थक शब्द, फिर चाहे वे शब्दात्मक हों या ध्वन्यात्मक, प्राणी जगत् की भावना को अभिव्यक्ति देते हैं । समूहचेतना में एक-दूसरे को समझने के लिए शब्द ही एक सशक्त माध्यम बनता है। जब तक अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध न हो जाए, विकसित चेतना वाले प्राणी अपने भावों को शब्दों के रथ पर आरूढ़ करके ही समूचे व्यवहार का संचालन करते हैं। दूसरी इन्द्रिय है चक्षु चक्षु इन्द्रिय का विषय है-वर्ण ।वर्ण का अर्थ है रंग। इसके पांच प्रकार हैं—कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । इन रंगों के संयोग से अनेक नये रंग उत्पन्न हो सकते हैं। उन संयोगजन्य रंगों की संख्या का कोई निर्धारण नहीं है। संसार में जितने दृश्य पदार्थ हैं, जिनको हम देख रहे हैं, उन सब में ये पांचों वर्ण विद्यमान रहते हैं। फिर भी जिस पदार्थ में जिस रंग की प्रमुखता होती है, वह वैसा ही दिखाई देता है और उसके आधार पर हम उसे काला, नीला, पीला या सफेद कह देते हैं। ___'परमाणु' पुद्गल की सबसे छोटी इकाई है। वह दृश्य है, पर हम उसे इन चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकते । उस परमाणु में भी कम से कम एक वर्ण आदि की उपस्थिति निश्चित रूप से रहती है। क्योंकि उनके अभाव में उसकी पौद्गलिकता प्रमाणित नहीं हो सकती। तीसरी इन्द्रिय है घ्राण घ्राण इन्द्रिय का विषय है-गन्ध ।गन्ध के दो प्रकार हैं-१. सुगन्ध २. दुर्गन्ध । मनोज्ञ गन्ध को सुगन्ध कहा जाता है और अमनोज्ञ गन्ध को दुर्गन्ध । कौन-सी गन्ध मनोज्ञ होती है और कौन-सी गन्ध अमनोज्ञ? इसके लिए कोई निश्चित मर्यादा नहीं है। क्योंकि एक ही गन्ध किसी के लिए मनोज्ञ हो सकती है और किसी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy