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६६ / जैनतत्त्वविद्या से 'स्पर्शरसगन्धवर्णवान्' के स्थान पर 'स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दवान् पुद्गलः' ऐसा उल्लेख होना चाहिए था। पर यह उल्लेख निर्विवाद नहीं रहता, इसलिए यहां शब्द को छोड़ दिया गया है।
पुद्गल की परिभाषा में शब्द को क्यों छोड़ा गया? इस प्रश्न का सीधा-सा उत्तर यह है, शब्द पुद्गल का ऐकान्तिक लक्षण नहीं है। शब्द के बिना भी पुद्गल रह सकता है । अर्थात् शब्द पुद्गल ही है, पर पुद्गल शब्दात्मक ही हो, यह आवश्यक नहीं है । शब्द केवल वचन वर्गणा के पुद्गलों का धर्म है। जबकि स्पर्श, रस, गन्ध
और वर्ण के बिना पुद्गल का कोई अस्तित्व ही नहीं रहता। इसलिए उसके लक्षणों में इन चारों का विशेष रूप से ग्रहण हुआ है।
संसार में दो ही प्रकार के पदार्थ होते हैं—मूर्त और अमूर्त ।
अमूर्त पदार्थों में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण नहीं होते, इसलिए वे पौद्गलिक नहीं होते । मूर्त पदार्थों में ये चारों तत्त्व पाए जाते हैं, इसलिए वे पौद्गलिक हैं।
स्पर्श आठ हैं, रस पांच हैं, गन्ध दो हैं वर्ण पांच हैं। प्रत्येक पुद्गल में ये सभी तत्त्व हों, जरूरी नहीं है। सबसे छोटा पुद्गल होता है-परमाणु पुद्गल । उसमें एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श होते हैं-'एकरसगन्धवों द्विस्पर्श:'।
अनन्तानन्तप्रदेशी स्थूल स्कन्ध में आठ स्पर्श, पांच रस, दो गन्ध और पांच वर्ण पाए जाते हैं।
३. मिश्र शब्द
५. इन्द्रियों के तेईस विषय हैंश्रोत्र इन्द्रिय के तीन विषय हैं
१. जीव शब्द २. अजीव शब्द चक्षु इन्द्रिय के पांच विषय है
१. कृष्ण ४. पीत २. नाल ५. श्वेत
३. रक्त घ्राण इन्द्रिय के दो विषय हैं१. सुगन्ध
२. दुर्गन्ध
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