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वर्ग २, बोल २/६३
२. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४, काल ५. पुद्गलास्तिकाय
इन पांचों में धर्मीस्तकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल-ये चार अमूर्त हैं। इनमें रूप नहीं होता । रूप के बिना आकार भी नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में एक पुद्गल तत्त्व ही ऐसा बचता है, जो रूपवान् और आकारवान् है।
सामान्यत: संस्थान दो प्रकार का होता है१. इत्यंस्थ
२. अनित्थंस्थ। इत्थंस्थ-इत्थंस्थ का अर्थ है निश्चित आकार । उक्त पांचों भेद इसी संस्थान के हैं। इनमें वृत्त और परिमंडल संस्थान गोलाकार पदार्थ के वाचक हैं। इन दोनों संस्थानों वाले पदार्थ गोल होने पर भी भिन्न-भिन्न आकृतियों के बोधक हैं। वृत्त आकार समझाने के लिए मोदक या गेंद का उदाहरण दिया जाता है। ये सघन और सतल होते हैं। परिमंडल संस्थान का उदाहरण है चूड़ी। चूड़ी गोलाकार होने पर भी मोदक की भांति सघन और सतल नहीं है। त्रिकोण संस्थान को सिंघाड़े के आकार से उपमित किया जा सकता है । चतुष्कोण संस्थान में वे सब वस्तुएं आ जाती हैं, जो चौकोर होती हैं। वैसे पंचकोण, षट्कोण आदि आकृतियां भी होती हैं, पर पांच संस्थानों में इनकी गणना न होने से इनका समावेश अनित्थस्थ संस्थान में हो जाता है।
अनित्थंस्थ- अनित्थंस्थ का अर्थ है अनियत आकार । कोई नियत आकार न होने के कारण इसके भेदों का निर्धारण नहीं हो सकता। उपर्युक्त पांच नियत आकारों के अतिरिक्त अन्य सभी संस्थान इसी में अन्तर्गर्भित हैं।
पांचवें संस्थान का नाम है आयत । यह वस्तु की लंबाई की सूचना देने वाला है। जैनशास्त्रों में इसके स्थान पर नाम आता है—पृथुल । इसका अर्थ होता है विस्तीर्ण । वैसे आयत शब्द लम्बा और विस्तृत-इन दोनों अर्थों का बोधक है। इस दृष्टि से आयत और पृथुल एक ही अर्थ के वाचक दो शब्द हैं।
उपरोक्त पांचों संस्थान पुद्गल के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ में नहीं होते।
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