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६२ / जैनतत्त्वविद्या
कभी नकारा नहीं जा सकता। इसलिए रूपी या मूर्त पदार्थ में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की उपस्थिति अनिवार्य है ।
अरूपी अजीव तत्त्व के चार प्रकार बताए गए हैं
१. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय ४. काल 'गतिसहायो धर्मः ' - गतिशील जीव और पुद्गलों की गति में उदासीन भाव से सहयोगी बनने वाला तत्त्व धर्म है। अस्ति का अर्थ है त्रैकालिक पदार्थ और काय का अर्थ है प्रदेश- समूह | गति में सहायता करने वाला प्रदेश- समूह धर्मास्तिकाय है । इसी प्रकार 'स्थितिसहायोऽधर्मः ' - स्थिति में सहायता करने वाला प्रदेशरा-समूह अधर्मास्तिकाय है । अवगाहलक्षणं आकाशः -- सब पदार्थों को आश्रय देने वाला प्रदेश-समूह आकाशास्तिकाय है । जो तत्त्व पदार्थों के परिवर्तन का हेतु है, वह काल है। ये चारों ही तत्त्व अमूर्त हैं । इनका कोई आकार नहीं है ।
रूपी अजीव तत्त्व एक ही प्रकार का है। वह है पुद्गल । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श इसके अपरिहार्य धर्म हैं । पुद्गल के अतिरिक्त ये धर्म कहीं भी नहीं मिलते । जहां पुद्गल है, वहां वर्ण, गन्ध आदि की सत्ता निश्चित है। पुद्गल शब्द जैनों का पारिभाषिक शब्द होने पर भी अपने आप में बहुत अर्थवान् है । आश्चर्य होता है कि कोशकारों ने इस शब्द को कैसे छोड़ दिया। मेरे अभिमत से मूर्त पदार्थ को अभिव्यक्ति देने वाला ऐसा कोई दूसरा शब्द नहीं है । इंग्लिश में पदार्थ के लिए मेटर शब्द का प्रयोग होता है, किन्तु वह अधूरा प्रतीत होता है। पुद्गल शब्द पूरा है । शब्द किसी का अपना नहीं होता । इसलिए इसे जैन पारिभाषिक शब्द मानकर उलझने की जरूरत नहीं है । आग्रह और संकीर्णता से मुक्त होकर मूर्त पदार्थ के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग होने से यह काफी व्यापक और प्रभावशाली प्रमाणित हो सकता है 1
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२. पुद्गल के पांच संस्थान हैं
९. वृत्त (मोदक का आकार )
२. परिमंडल (चूड़ी का आकार ) ३. त्रिकोण
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दूसरे बोल में पुद्गल के पांच संस्थान बतलाए गए हैं। संस्थान का अर्थ है आकार । जीव का कोई आकार नहीं होता, इसलिए उसमें कोई संस्थान भी नहीं होता । अजीव के पांच भेद हैं१. धर्मास्तिकाय
४. चतुष्कोण
५. आयत
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