________________
१. अजीव के दो प्रकार हैं१. अरूपी
. २. रूपी अरूपी अजीव के चार प्रकार हैं
१. धर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय
२. अधर्मास्तिकाय ४. काल रूपी अजीव का एक प्रकार है
१. पुद्गलास्तिकाय 'कालू तत्त्वशतक' के प्रथम वर्ग के पच्चीस बोलों में विविध दृष्टियों से जीव तत्त्व का विवेचन किया गया है। जीव का प्रतिपक्षी तत्त्व है अजीव। जीव और अजीव-ये दो ही तत्त्व हैं इस संसार में । इसलिए जीव का विश्लेषण करने के बाद दूसरे वर्ग में अनुक्रम से अजीव के सम्बन्ध में चर्चा की जा रही है।
अजीव वह तत्त्व है, जिसमें चैतन्य गुण का सर्वथा अभाव है । वह जड़ पदार्थ है। उसके दो भेद हैं-अरूपी और रूपी । दूसरे शब्दों में अमूर्त और मूर्त । अरूपी और अमूर्त ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।
अरूपी पदार्थ का कोई आकार नहीं होता। उसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श भी नहीं होता। न वह आंखों से देखा जा सकता है, न सूंघा जा सकता है, न चखा जा सकता है और न छूकर ही उसका अनुभव किया जा सकता है । इन्द्रिय-ग्राह्य न होने पर भी उसका अस्तित्व है। अतीन्द्रियज्ञानी उसे जानते हैं और दूसरों को बोध देने के लिए उसका निरूपण करते हैं। उस निरूपण के आधार पर अरूपी अजीव तत्त्व बुद्धिगम्य हो जाता है।
रूपी का अर्थ है रूपवान् । शाब्दिक परिप्रेक्ष्य में यह शब्द केवल रूप आकार या वर्ण का वाचक है। किन्तु इसका वाच्यार्थ है-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श का समन्वित रूप। क्योंकि एक वर्ण के ग्रहण से गंध, रस, स्पर्श आदि स्वत: गृहीत हो जाते हैं। ___जिस पदार्थ में रूप है, उसमें अच्छा या बुरा गन्ध होगा ही। जिस पदार्थ में गन्ध है, उसमें खट्टा-मीठा या कोई और रस होगा ही। इसी प्रकार जिस पदार्थ में रस है, उसमें शीत, उष्ण, स्निग्ध या रूक्ष कोई न कोई स्पर्श होगा ही। किसी पदार्थ में वर्ण, गंध, रस या स्पर्श में से किसी का अस्तित्व हो और किसी का न हो, यह नहीं हो सकता। क्योंकि इनका परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org