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५४ / जैनतत्वविधा जीव के साथ जुड़ा हुआ है । जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाला भी वही है । जब तक कषाय का अस्तित्व रहता है, जन्म और मृत्यु की श्रृंखला का अन्त नहीं होता। यह निर्विवाद तथ्य है । पर प्रश्न यह है कि कषाय केवल मोक्ष का ही बाधक है या अन्य भी किसी तत्त्व का अभिघात करता है? कषाय के उदय से व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में ही असफल रहता है या उससे आत्मगुणों का भी घात होता
आत्मा के दो विशेष गुण हैं—सम्यक्त्व और चारित्र ।
सम्यक्त्व का अर्थ है सही दृष्टिकोण और चारित्र का अर्थ है आत्मसंयम। ये दो गुण ऐसे हैं, जिनके द्वारा जीव अपने मूल स्वभाव को प्राप्त कर सकता है। जीव एक शुद्ध, बुद्ध, चित् और आनन्दमय तत्त्व है । क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय उसको विकृत बना देते हैं। आत्मा की विकृति जितनी-जितनी अधिक है, आत्मगुणों का प्रतिघात उतनी मात्रा में होता है । कषाय की मंदता और तीव्रता के आधार पर अभिघात के भी चार प्रकार हैं। १. अनन्तानुबन्धी-चतुष्क
अनन्तानुबन्धी-चतुष्क से सम्यक्त्व का अभिघात होता है।
सम्यक्त्व का अभिघात होने से आत्मा, परमात्मा, धर्म, साधना आदि के सम्बन्ध में दृष्टि-विपर्यय हो जाता है । जो तत्त्व सही है, उसके बारे में धारणा गलत बन जाती है। जिस प्रकार हरा और पीला चश्मा लगाने से किसी भी रंग का पदार्थ हरा और पीला दिखाई देता है, वैसे ही सम्यक्त्व के अभाव में व्यक्ति की तत्त्व-श्रद्धा विपरीत हो जाती है। २. अप्रत्याख्यान-चतुष्क
अप्रत्याख्यान-चतुष्क से देशव्रत का अभिघात होता है ।
देशव्रत का अभिघात होने से व्यक्ति गलत तत्त्व को गलत समझने पर भी उसे छोड़ने के लिए संकल्पबद्ध नहीं हो सकता। उसकी ज्ञ-परिज्ञा विकसित रहती है, किन्तु प्रत्याख्यान-परिज्ञा जाग नहीं पाती। ३. प्रत्याख्यान-चतुष्क
प्रत्याख्यान-चतुष्क से महाव्रत का अभिघात होता है।
महाव्रत का अभिघात होने से व्यक्ति अपने संकल्प को पूर्णता के बिन्दु तक नहीं ले जा सकता है। उसकी व्रत-चेतना खण्डश: विकसित होती है। इसलिए वह नांशिक रूप से व्रत स्वीकार करता है, पर महाव्रत की साधना नहीं कर सकता।
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