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विशेष प्रयत्न के द्वारा उसे इधर-उधर मोड़ा जा सकता 1
अप्रत्याख्यान माया मेंढ़े के सींग के समान है । मेंढ़े के सींग में बांस की जड़ जितनी वक्रता नहीं होती, फिर भी वह काफी टेढ़ा रहता है । अप्रत्याख्यान लोभ कीचड़ के रंग जैसा है । वस्त्र में कीचड़ के धब्बे लग जाएं तो वे सहजता से नहीं छूटते । इसी प्रकार आत्मा पर लगे हुए अप्रत्याख्यान लोभ के धब्बे उसे कलुषित बनाए रखते हैं ।
वर्ग १, बोल २३ / ५३
प्रत्याख्यान कषाय-चतुष्क बालू की रेखा, काष्ठ के स्तम्भ, चलते हुए बैल के मूत्र की धारा और गाड़ी के खंजन के समान है। बालू की रेखा साधारण-सी हवा से मिट जाती है । काष्ठ स्तम्भ को प्रयत्न से झुकाया जा सकता है । चलते हुए बैल की मूत्रधारा टेढ़ी-मेढ़ी होने पर भी उलझी हुई नहीं होती। गाड़ी का खंजन वस्त्र को विद्रूप बनाता है, फिर भी वह केरोसिन आदि तेल के प्रयोग से जल्दी ही साफ हो जाता है । इसी प्रकार प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ भी क्षमा आदि की साधना से काफी हल्के हो जाते हैं ।
संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ क्रमशः जल की रेखा के समान, लता-स्तम्भ के समान, छिलते हुए बांस की छाल के समान और हल्दी के रंग के समान हैं।
पानी की रेखा क्षणिक होती है। वह अपने अस्तित्व को टिकाकर रख ही नहीं सकती । लता-स्तम्भ में कड़ापन नाम का कोई तत्त्व होता ही नहीं । छिलते हुए बांस की छाल टेढ़ी होती है। पर वह सरलता से सीधी हो जाती है। हल्दी का रंग वस्त्र पर चढ़ता है, पर धूप दिखाते ही वह उड़ जाता है ।
इसी प्रकार संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ व्यक्ति को समय और
परिणाम दोनों दृष्टियों से बहुत कम प्रभावित कर पाते हैं ।
२३. कषाय से होने वाले अभिघात के चार प्रकार हैं१. अनन्तानुबन्धी- चतुष्क से सम्यक्त्व का अभिघात २. अप्रत्याख्यान - चतुष्क से देशव्रत का अभिघात
३. प्रत्याख्यान-चतुष्क से महाव्रत का अभिघात ४. संज्वलन - चतुष्क से यथाख्यात चारित्र का अभिघात
ta की आदि नहीं है । कषाय की भी आदि नहीं है। वह अनादि काल से
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