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वर्ग १, बोल २० / ४९ ४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा - ज्ञान, दर्शन और चारित्र – ये तीनों मोक्ष के मार्ग हैं । इन तीनों की समन्वित आराधना से ही मोक्ष हो सकता है । इनको उन्मार्ग मानकर इनसे दूर रहने का प्रयत्न करना ।
५. अजीव में जीव संज्ञा - जीव जैसी क्रिया – हलन चलन, प्रकम्पन आदि देखकर परमाणुपिंड को जीव मान लेना। जैनदर्शन के अनुसार जीव की भांति अजीव में भी प्रकम्पन हो सकता है । इसलिए वह उसकी पहचान का आधार नहीं बन
सकता ।
६. जीव में अजीव संज्ञा - पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि जीवों का जीवत्व समझ में न आने पर उन्हें अजीव स्वीकार कर लेना ।
७. असाधु में साधु संज्ञा- अनुशासन और मर्यादा का खुला भंग करने पर भी केवल बाह्य आचार के आधार पर अथवा क्रियाकांडों और अज्ञान-कष्टों के आधार पर उस व्यक्ति को साधु समझ लेना, जिसमें साधुत्व का कोई भी गुण न हो ।
८. साधु में असाधु संज्ञा - साधनाशील साधु को भी अपने अज्ञान या पूर्वाग्रह के कारण असाधु समझ बैठना ।
९. अमुक्त में मुक्त संज्ञा - संसार में जितने भी अवतार होते हैं, वे किसी जन्म में मुक्त हो जाते हैं। धर्म का ह्रास देखकर वे पुनः शरीर धारण करते हैं। इस मान्यता के आधार पर उन महापुरुषों को मुक्त मान लेना, जो अभी संसार में भ्रमण कर रहे हैं
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१०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा - ईश्वर कर्तृत्व के सिद्धान्त में जिनका विश्वास है, वे संसार की प्रवृत्तियों से निरपेक्ष, आत्म-स्वरूप में अवस्थित मुक्त आत्माओं को ईश्वर के रूप में स्वीकर नहीं करते। इस धारणा के अनुसार ईश्वर के अतिरिक्त सभी जीव संसार में रहते हैं, इसलिए वे मुक्त नहीं हो सकते
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उपर्युक्त दसों प्रकार ऐसे हैं, जो वस्तु या तत्त्व के सम्यग् अवबोध में बाधक हैं, इसलिए इन्हें मिथ्यात्व के प्रकारों में अन्तर्गर्भित किया गया है ।
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