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४८ / जैनतत्त्वविद्या
२०. व्यावहारिक मिथ्यात्व के दस प्रकार हैं
१. अधर्म में धर्मसंज्ञा
२. धर्म में अधर्म संज्ञा
३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा
४. मार्ग में अमार्ग संज्ञा
५. अजीव में जीव संज्ञा
६. जीव में अजीव संज्ञा
७. असाधु में साधु संज्ञा ८. साधु में
साधु संज्ञा
९. अमुक्त में मुक्त संज्ञा
१०. मुक्त में अमुक्त संज्ञा
बीसवें बोल में व्यावहारिक मिथ्यात्व के दस प्रकार बतलाए गए हैं। निश्चय में तो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शनमोहनीय त्रिक—– मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से होने वाली विपरीत श्रद्धारूप आत्म- परिणति मिथ्यात्व है । पर इस बात को कोई ज्ञानी व्यक्ति ही समझ सकता है । साधारण व्यक्ति निश्चय की भूमिका पर खड़ा होकर तत्त्व-बोध नहीं कर सकता । इसलिए यह अपेक्षा अनुभव की गई कि व्यवहार की भूमिका से भी मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की पहचान करवाई जाए। इस बोल में इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर मिथ्यात्व को समझाया गया है ।
प्रश्न हो सकता है कि क्या कोई धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मान सकता है ? जहां दृष्टि भ्रम हो, वहां कुछ भी माना जा सकता है और कुछ भी समझा जा सकता है । यहां मिथ्यात्व के हर प्रकार को विस्तार के साथ समझाया जा रहा है—
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१. अधर्म में धर्म संज्ञा - जिन प्रवचन के अनुसार हिंसा अधर्म है और अहिंसा धर्म है। कुछ लोग छह जीवनिकाय की हिंसा करते हैं और उसे धर्म मानते हैं। उन लोगों का तर्क यह है कि जो लोग धर्म की दृष्टि से हिंसा करते हैं, क्या वे सब मूर्ख हैं ? हिंसा के बिना संसार में किसका काम चलता है। जो जीवन के लिए जरूरी है, वह धर्म ही तो है
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२. धर्म में अधर्म संज्ञा - उपवास करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, खाद्यसंयम आदि जितनी भी संयम और तपमूलक प्रवृत्तियां हैं, उन्हें रूढ़ि मानकर अधर्म में परिगणित कर देना ।
३. अमार्ग में मार्ग संज्ञा - जो रास्ता मोक्ष की ओर ले जाने वाला नहीं है, उसे मोक्ष मार्ग मान लेना, जैसे- नरबलि, पशुबलि आदि से स्वर्ग और मोक्ष की
कल्पना करना ।
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