________________
वर्ग १, बोल १९ / ४७ नहीं होती, पर किसी तत्त्व को गहराई से समझने का मनोभाव पैदा ही नहीं होता, जैसे—जैन संस्कार विधि अच्छी तो है, पर जो कुछ सैकड़ों-हजारों वर्षों से चला आ रहा है, उसे छोड़कर नया झमेला क्यों खड़ा करें ? जो काम करना है, ऐसे भी हो सकता है और वैसे भी हो सकता है । इस स्थिति में अपनी पुरानी परम्परा को क्यों तोड़ें? इस प्रकार तटस्थ भाव से गलत तत्त्व को पकड़कर रखने वाला व्यक्ति दूसरी कोटि के मिथ्यात्व से आक्रान्त रहता है । ३. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व
तात्कालिक आग्रह के कारण किसी तत्त्व को असम्यक् रूप से पकड़ कर रखना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। वैसे अभिनिवेश और आग्रह शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं, फिर भी इनके आधार पर मिथ्यात्व के दो भिन्न प्रकार किए गए हैं, इससे यह प्रतीत होता है कि ये दोनों शब्द पर्यायवाचक नहीं हैं । आग्रह दीर्घकालिक होता है और अभिनिवेश अल्पकालिक । तात्कालिक आवेश में आकर अपनी गलत बात को भी सही बताने का प्रयत्न करने वाला व्यक्ति तीसरी कोटि के मिथ्यात्व से प्रभावित होता है ।
४. अनाभोगिक मिध्यात्व
ज्ञान के अभाव में गलत तत्त्व को पकड़कर बैठना अनाभोगिक मिथ्यात्व है । इसमें न अच्छे-बुरे की पहचान होती है और न परम्परा का बोध ही होता है। धर्म, अधर्म आदि के बारे में भी इसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं होती। किसी ने कोई बात
I
कह दी । स्वयं की ज्ञान चेतना अविकसित होने के कारण उस पर किसी प्रकार का विचार किए बिना उस बात को एकान्ततः सत्य के रूप में मान लेने वाला व्यक्ति चौथी कोटि के मिथ्यात्व से ग्रस्त रहता है ।
५. सांशयिक मिध्यात्व
संदेह की स्थिति में किसी गलत तत्त्व को सही मान लेना अथवा यह भी ठीक हो सकता है, वह भी ठीक हो सकता है - इस प्रकार की दोलायमान मनःस्थिति सांशयिक मिथ्यात्व कहलाता है । इसके कारण वैचारिक अस्थिरता रहती है, इसलिए आस्था किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित नहीं हो सकती ।
मिथ्यात्व के ये पांचों प्रकार यथार्थ पर आवरण डालकर व्यक्ति को गुमराह बनाने वाले हैं। इनके प्रमुख हेतु हैं— आग्रह और अज्ञान । इस दोनों हेतुओं के मिटने से ही मिथ्यात्वजनित दोष से बचा जा सकता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org