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४६ / जैनतत्वविद्या जाएगा।' चौथे ने कहा—'टहनियों को तोड़ने से क्या लाभ? केवल फल के गुच्छों को तोड़ना ही काफी है।' पांचवां मित्र बोला-'हमें गुच्छों से क्या प्रयोजन? केवल फल ही तोड़कर ले लेना अच्छा है।' छठा मित्र गम्भीर होकर बोला-'आप सब क्या सोच रहे हैं? हमें जितने फल चाहिए, उतने तो नीचे गिरे हुए ही हैं, फिर व्यर्थ में इतने फल तोड़ने से क्या लाभ?'
इस दृष्टान्त से लेश्याओं का स्वरूप स्पष्टता से समझ में आ जाता है। पहले व्यक्ति के परिणाम कृष्ण लेश्या के हैं और क्रमशः छठे व्यक्ति के परिणाम शुक्ल लेश्या के हैं। यह निदर्शन केवल परिणामों की तरतमता का सूचक है।
१९. मिथ्यात्व के पांच प्रकार हैं१. आभिग्रहिक ४. अनाभोगिक २. अनाभिग्रहिक ५. सांशयिक
३. आभिनिवेशिक उन्नीसवें बोल में मिथ्यात्व के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। कोई वस्तु या तत्त्व जिस रूप में है, उसे उसी रूप में स्वीकार न कर भिन्न रूप में समझना और समझाना मिथ्यात्व है । मूलतः मिथ्यात्व के दो भेद हैं
आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक । शेष तीन भेद इन्हीं का विस्तार मात्र है । १. आभिग्रहिक मिथ्यात्व
सही तत्त्व को समझ लेने के बाद भी गलत तत्त्व को पकड़कर रखना आभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है। इस प्रकार से यह रूढ़ता, परम्परावादिता या आग्रहशीलता की निष्पत्ति है। कोई आदमी तलैया के सूख जाने पर भी उसका कीचड़ खाता है। दूसरा व्यक्ति उससे पूछता है कि आप पानी वाले तालाब को छोड़कर यहां क्यों आए? वह आदमी उत्तर देता है—यह तलैया मेरे पिता की है। पानी हो या कीचड़, अपनी चीज तो अपनी ही होती है। इस प्रकार किसी तत्त्व की सही जानकारी मिल जाने पर भी अपने गृहीत आग्रह को नहीं छोड़ने वाला व्यक्ति, इस प्रथम कोटि के मिथ्यात्व का शिकार हो जाता है। २. अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व
किसी प्रपंच में कौन जाएगा? इस बुद्धि से अपने पूर्व गृहीत विचार या तत्त्व को नहीं छोड़ना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व कहलाता है। इसमें कोई पूर्वाग्रह या पकड़
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