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१८. लेश्या के छह प्रकार हैं
४. तेज:
वर्ग १, बोल १८ / ४५
१. कृष्ण
५. पद्म
२. नील ३. कापोत
६. शुक्ल
लेश्या का अर्थ है— तैजस शरीर के साथ काम करने वाली चेतना अथवा भावधारा । अठारहवें बोल में उसके छह प्रकार बतलाये गये हैं— कृष्ण, नील, कापोत, तेजः, पद्म और शुक्ल ।
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इनमें प्रथम तीन लेश्याएं अप्रशस्त हैं और शेष तीन लेश्याएं प्रशस्त हैं प्रशस्त लेश्याएं प्रकाशमय, स्निग्ध और गर्म हैं । अप्रशस्त लेश्याएं अंधकारमय, रूक्ष और ठंडी हैं ।
अशुभ लेश्या के स्पन्दनों से व्यक्ति के मन में हिंसा, झूठ, चोरी, ईर्ष्या, शोक, घृणा और भय के भाव जागृत होते हैं ।
शुभ लेश्या के स्पन्दनों से अभय, मैत्री, शांति, जितेन्द्रियता, क्षमा आदि पवित्र भावों का विकास होता है ।
छहों लेश्याओं के छह रंग हैं— काला, नीला, कापोती, लाल, पीला और सफेद । इन रंगों से प्रभावित भावधारा शुभ और अशुभ रूप में परिणत होती है । भाव और विचार - ये दो अलग-अलग तत्त्व हैं । भाव अन्तरंग तत्त्व है । इसके निर्माण में ग्रन्थितंत्र का सहयोग रहता है । विचार का संबंध कर्म से है । इसका निर्माण नाड़ीतंत्र से होता है।
भावधारा शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती है। इसके निर्माण में रंगों का बहुत बड़ा हाथ रहता है। लाल, पीला और सफेद रंग भावविशुद्धि का उपाय है । विशुद्ध भावधारा से शारीरिक और मानसिक बीमारी दूर होती है एवं मूर्च्छा टूटती है।
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जैन दर्शन में लेश्या का बहुत सूक्ष्म विवेचन है। इसे स्थूल रूप से समझने के लिए एक निदर्शन को काम में लिया जाता है— छह मित्र एक बगीचे में गये । वहां उन्होंने एक पके हुए जामुन का वृक्ष देखा। पहला मित्र बोला- 'चलो इस वृक्ष को उखाड़ फेंकें और पेट भर जामुन खाएं ।' दूसरे ने कहा- 'वृक्ष को उखाड़ने से क्या लाभ? केवल बड़ी शाखाओं को काटने से ही हमारा काम हो जाएगा ।' तीसरे ने कहा - 'यह भी उचित नहीं, हमारा काम छोटी शाखाओं को काटने से ही हो
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