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________________ ४४ / जैनतत्त्वविद्या भाव है। इसे उदयनिष्पन्न भाव भी कहा जाता है। उदय आठों कर्मों का होता है । औपशमिक भाव मोहकर्म के उपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था औपशमिक या उपशमनिष्पन्न भाव है। उपशम एक मोहकर्म का ही होता है। मोहकर्म आत्मा की विकृति का प्रमुख हेतु है । जीव को सबसे अधिक पुरुषार्थ इसी के साथ लोहा लेने में करना होता है। उपशम काल में मोहकर्म सर्वथा प्रभावहीन हो जाता है, किंतु यह स्थिति अड़तालीस मिनट के भीतर-भीतर बदल जाती है। इसलिए जीव को इसके साथ बार-बार संघर्ष करना पड़ता है। क्षायिक भाव कर्मों के क्षय से होने वाली आत्मा की अवस्था क्षायिक या क्षय-निष्पन्न भाव है। सब कर्मों का क्षय होने के बाद पुनः किसी भी कर्म का बंधन नहीं होता। कर्म-मुक्त होने के बाद जीव के संसार-भ्रमण का मार्ग बंद हो जाता है। वह सिद्ध, बुद्ध, परमात्मा बन जाता है। क्षायोपशमिक भाव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय—इन चार घात्य कर्मों के हल्केपन से आत्मा की जो अवस्था होती है, वह क्षायोपशमिक या क्षयोपशम-निष्पन्न भाव कहलाता है । क्षयोपशम से निष्पन्न अवस्थाओं की अनन्त भूमिकाएं हो सकती हैं। पुरुषार्थ जितना प्रबल होता है, कर्म उतने ही अधिक हल्के होते जाते हैं। वह हल्कापन ही क्षायोपशमिक भाव है। औपशमिक भाव में मोह कर्म का सर्वथा अनुदय रहता है । क्षायोपशमिक भाव में घात्य कर्मों का उदय चालू रहता है-वहां प्रतिक्षण कर्म का उदय, वेदन और क्षय होता रहता है । इस सहज कर्म क्षय के साथ आगामी काल में उदय होने वाली कर्म प्रकृतियों के विपाकोदय का अभाव रूप उपशम होता है, इसलिए इसे क्षायोपशमिक भाव कहा जाता है। पारिणामिक भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के द्वारा जीव की जो-जो परिणतियां होती हैं, जिन-जिन अवस्थाओं में परिणति होती है, वह पारिणामिक भाव कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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