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वर्ग १, बोल १७ / ४३
१०. सूक्ष्मसम्पराय — दसवीं श्रेणी में सूक्ष्म कषाय बाकी रहता है । कषाय का भी एक अंश केवल सूक्ष्म लोभ । इस श्रेणी का नाम है सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान । ११. उपशान्त मोह - ग्यारहवीं श्रेणी है— उपशान्त मोह । इसमें मोह - कर्म का सर्वथा उपशम हो जाता है ।
१२. क्षीणमोह - बारहवीं श्रेणी में मोह सर्वथा क्षीण हो जाता है । १३. सयोगी केवली - तेरहवीं श्रेणी में केवलज्ञान उपलब्ध होता है । इसका नाम है- 'सयोगी केवली।' इसमें केवली के मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति चालू रहती है।
१४. अयोगी केवली – चौदहवीं श्रेणी में पहुंचते ही प्रवृत्ति मात्र का निरोध हो जाता है । इस श्रेणी का नाम है 'अयोगी केवली' । इसके बाद जीव मुक्त हो जाता है । ये श्रेणियां आत्मविशुद्धि की क्रमिक भूमिकाएं हैं ।
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१७. भाव (जीव का स्वरूप) के पांच प्रकार हैं
४. क्षायोपशमिक ५. पारिणामिक
१. औदयिक
२. औपशमिक
३. क्षायिक
सतरहवें बोल में भाव के पांच प्रकार बतलाये गये हैं। कर्मों के संयोग या वियोग से होने वाली जीव की अवस्था विशेष का नाम भाव है। इसे जीव का स्वरूप भी कहा जाता है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव अपने शुद्ध स्वरूप में उपलब्ध नहीं होता । शुद्ध चैतन्य जीव का मूलभूत स्वरूप है, किंतु वह अनादिकाल से कर्ममल से लिप्त है। जब तक वह इस कर्ममल को धोकर उज्ज्वल नहीं बन जाता, तब तक कर्मों के बंध, उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि से होने वाली विविध परिणतियों में परिणत होता रहता है
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औदयिक भाव
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संसारी जीव प्रवृत्ति करता है। जहां प्रवृत्ति है, वहां बंधन है । बंधन आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का होता है । जो पुद्गल बंधते हैं, वे कुछ समय तक आत्मा के साथ घुले-मिले रहते हैं। स्थिति का परिपाक होने पर या उदीरणा के द्वारा बंधे हुए कर्म उदय में आते हैं । कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था औदयिक
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