________________
४२ / चैनतत्वविद्या व्यक्ति न इधर का रहता है न उधर का। किसी एक तत्त्व में संदेह रहने पर भी यह स्थिति प्राप्त हो जाती है। यह स्थिति ऊर्ध्वगमन की है। तीसरे गुणस्थान से दूसरे में भी आया जा सकता है। पर यहां विवक्षा ऊर्ध्वगमन की है । इसी दृष्टि से इसका स्थान तीसरा रखा गया है। इसे पार करके ही व्यक्ति सम्यक्त्वी बन सकता है।
४. अविरतिसम्यक्दृष्टि-चौथी श्रेणी का नाम है-अविरतिसम्यक्दृष्टि । इसमें सम्यक्त्व का अवतरण पूर्णरूप से हो जाता है। किंतु व्रत ग्रहण की क्षमता विकसित नहीं होती। इसमें अनन्तानुबंधी चतुष्क का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता है, पर अप्रत्याख्यानावरण का उदय रहता है। इसलिए प्रत्याख्यान नहीं हो सकता।
५. देशविरति-पांचवी श्रेणी देशविरति गुणस्थान है। इसमें अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम होता है, इसलिए अंशतः व्रतग्रहण की क्षमता प्राप्त हो जाती है।
६. प्रमत्तसंयत-छठी श्रेणी का नाम है-प्रमत्तसंयत गुणस्थान । इसमें प्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम हो जाने से संपूर्ण रूप से व्रती जीवन का क्रम शुरू हो जाता है। इससे आगे की सब श्रेणियों में व्रत संयम तो रहता ही है, उसके साथ-साथ अन्य गुणों का विकास होता जाता है।
७. अप्रमत्तसंयत-सातवीं श्रेणी का नाम है-अप्रमत्तसंयत गुणस्थान । इसमें प्रमाद छूट जाता है। हर क्षण जागरूकता में व्यतीत होता है । यह स्थिति बहुत लम्बे समय तक नहीं रहती। इसलिए ऊर्ध्वारोहण करने वालों को छोड़कर छठी-सातवीं श्रेणी का क्रम बदलता रहता है।
८. निवृत्तिबादर-आठवीं श्रेणी का नाम है-निवृत्तिबादर गुणस्थान । इसमें बादर अर्थात् स्थूल कषाय की निवृत्ति हो जाती है। अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय का उपशम या क्षय हो जाने के कारण निवृत्ति को प्रधान मानकर इसे निवृत्तिबादर कहा जाता है । इस गुणस्थान में भी कुछ स्थूल कषाय बचा रहता है। पर उसकी विवक्षा नहीं की जाती । इस श्रेणी का दूसका नाम अपूर्वकरण भी
TO
९. अनिवृत्तिबादर-नौवें गुणस्थान में संज्वलन कषाय की अनिवृत्ति रहती है । उसी की प्रधानता से इस गुणस्थान को अनिवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है। अनिवृत्ति का यह क्रम नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ में रहता है। उसके अन्तिम समय में क्रोध, मान और माया की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। उसमें केवल लोभ अवशेष रहता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org