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४० / जैनतत्त्वविद्या
आठ आत्माओं के इस वर्गीकरण के साथ अन्य आत्मा की सूचना से आत्मा के अनंत रूपों की संभावना सत्य में बदल जाती है। संसार में रहने वाली कुछ आत्माएं बहुत अच्छी हैं और कुछ आत्माएं अच्छी नहीं हैं। आत्मा के अच्छी और बुरी होने का मूलभूत आधार है कर्म-वर्गणा। संसार की सब आत्माओं को कर्मों के उदय, क्षयोपशम और क्षय के आधार पर तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा और अंतरात्मा सैद्धांतिक शब्द हैं । व्यवहार में इनके लिए दुरात्मा और महात्मा शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
दुरात्मा औदयिक भाव है। महात्मा क्षायोपशमिक भाव है और परमात्मा क्षायिक भाव है। व्यक्ति जितने बुरे काम करता है, उसके पीछे कर्मोदय का हाथ रहता ही है। यह उदय की श्रृंखला जितनी मजबूत होती है, व्यक्ति की आत्मा उतनी ही आवृत और विकृत रहती है। क्षायोपशमिक भाव में कर्मों की बेड़ियां सर्वथा टूटती नहीं, पर उनका बंधन उतना प्रगाढ़ नहीं रहता। उस स्थिति में व्यक्ति का चिंतन
और व्यवहार बदलता है, यह दुरात्मा की भूमिका से ऊपर उठकर महात्मा बन जाता है। क्षायिक भाव में कर्मों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । आत्मा विकार-रहित होकर सब आवरणों से मुक्त हो जाती है। उस समय आत्मा का मूल स्वरूप प्रकट हो जाता है। स्वरूपोपलब्धि ही परमात्म-भाव है।
आत्मा मूलतः एक ही है । उसकी ये तीन अवस्थाएं सापेक्ष दृष्टि से की गई हैं। धर्म की साधना व्यक्ति को दरात्मा से परमात्मा बनाने में सक्षम है।
१६. गुणस्थान के चौदह प्रकार हैं१. मिथ्यादृष्टि ८. निवृत्तिबादर २. सास्वादनसम्यग्दृष्टि ९. अनिवृत्तिबादर ३. मिश्रदृष्टि
१०. सूक्ष्मसम्पराय ४. अविरतिसम्यग्दृष्टि ११. उपशान्तमोह ५. देशविरति १२. क्षीणमोह ६. प्रमत्तसंयत १३. सयोगीकेवली
७. अप्रमत्तसंयत १४. अयोगीकेवली कर्म के विलय की तरतमता के आधार पर जीव की चौदह श्रेणियां स्थापित की गयी हैं। वे ही श्रेणियां चौदह गुणस्थान या जीवस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। संसार के समस्त जीव उन चौदह श्रेणियों में विभाजित हैं। उनमें सबसे पहली श्रेणी
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