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३२ / जैतत्त्वविद्या
काययोग के सात प्रकार हैं१. औदारिक काययोग २. औदारिकमिश्र काययोग ३. वैक्रिय काययोग ४. वैक्रियमिश्र काययोग
५. आहारक काययोग ६. आहारकमिश्र काययोग ७. कार्मण काययोग
योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है । उन अर्थों में दो अर्थ- मिलन और समाधि अधिक प्रसिद्ध हैं। वर्तमान युग में योग एक प्रकार की साधना-पद्धति अथवा आसन प्रयोग के अर्थ में काफी प्रचलित है । जैन शास्त्रों में योग शब्द इन सबसे भिन्न अर्थ में आता है। शास्त्र प्रचलित अर्थ के अनुसार योग को परिभाषित करते हुए 'जैनसिद्धान्तदीपिका' में कहा है- 'कायवाङ्मनो व्यापारो योगः' । शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति का नाम योग है । 'कालू तत्त्वशतक' में इसी अर्थ में योग शब्द का प्रयोग हुआ है ।
योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का होता है । उसके सावद्य और निरवद्य-ये दो भेद भी उपलब्ध हैं। पर मूलतः उसके तीन भेद हैं— मनोयोग, वचनयोग और काययोग । योग एक प्रकार का स्पन्दन है, जो आत्मा और पुद्गल - वर्गणा के संयोग से होता है । अध्यवसाय, परिणाम और लेश्या भी एक प्रकार से स्पन्दन ही हैं । पर वे अति सूक्ष्म स्पन्दन हैं । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम, नाम कर्म के उदय तथा मन, वचन और काययोग सापेक्ष आत्मा की जो प्रवृत्ति होती है, वह योग कहलाती है
पुद्गल-वर्गणा के संयोग से आत्मा में जो स्पन्दन होता है, वह मूलतः एक ही प्रकार का है, पर विवक्षा या निमित्त भेद के आधार पर उसे तीन रूपों में विभक्त कर दिया गया है ।
मन, वचन और काययोग -- इन तीन योगों में काययोग प्रत्येक प्राणी में होता है । केवल शैलेशी अवस्था (अयोगी गुणस्थान) में नहीं होता। संसार भर के प्राणी त्रस और स्थावर इन दो वर्गों में बंटे हुए हैं। स्थावर प्राणियों एवं असंज्ञी मनुष्य में केवल काययोग होता है । दो इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों तथा असंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों में काययोग और वचनयोग होते हैं । नारक, देव, संज्ञी मनुष्य और संज्ञी तिर्यञ्च में काययोग, वचनयोग और मनोयोग तीनों होते हैं । मनोयोग
हमारी प्रवत्ति का सक्ष्म किन्त प्रमख कारण है । मन के द्वारा होने वाला
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