SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग १, बोल ११ / २९ हो जाता है। इन्द्रिय ज्ञान व्यवहित ज्ञान है । आत्मा और पदार्थ के बीच में तीसरे तत्त्व की उपस्थिति रहती है, इसलिए यह परोक्ष ज्ञान है । अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये तीनों अतीन्द्रिय और प्रत्यक्षज्ञान कहलाते हैं। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद इन्द्रिय-सम्पन्न व्यक्ति भी अनिन्द्रिय बन जाता है। क्योंकि वहां आकार रूप में सभी इन्द्रियों की सत्ता अवश्य है, किन्तु पदार्थ को जानने के लिए उनका उपयोग करने की अपेक्षा नहीं रहती। वहां आत्मज्ञान के आलोक में मूर्त-अमूर्त हर पदार्थ और घटना का प्रतिबिम्ब पड़ता है। उस प्रतिबिम्ब की ग्राहक स्वयं आत्मा होती है, इन्द्रिय नहीं। इस दृष्टि से केवलज्ञानी को अनिन्द्रिय कहा जाता है। ११. पर्याप्ति के छह प्रकार हैं१. आहार ४. श्वासोच्छ्वास २. शरीर ५. भाषा ३. इन्द्रिय ६. मन संसारी प्राणी किसी भी जीवयोनि में उत्पन्न हो, वह जब तक जीवित रहता है तब तक उसे किसी पुष्ट आलम्बन की अपेक्षा रहती है। वह आलम्बन प्राणशक्ति तो है ही, उसके साथ एक विशिष्ट प्रकार की पौद्गलिक शक्ति भी है, जो पर्याप्ति के नाम से अपनी पहचान कराती है। पर्याप्ति का अर्थ है जीवन धारण में उपयोगी पौदगलिक शक्ति। यह शक्ति प्राणी उस समय ग्रहण करता है, जब वह एक स्थल शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है। वहां एक साथ अपेक्षित पुद्गलसमूह ग्रहण करता है और उन्हें आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के रूप में परिणत कर वैसी पौद्गलिक क्षमता अर्जित कर लेता है। आहार पर्याप्ति का बंध सबसे पहले होता है। इस पर्याप्ति के द्वारा जीव जीवन भर आहार प्रायोग्य पुद्गलों के ग्रहण, परिणमन और विसर्जन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। शरीर पर्याप्ति के द्वारा शरीर के अंगोपांगों का निर्माण होता है। इन्द्रिय पर्याप्ति त्वचा आदि इन्द्रियों के निर्माण का कार्य सम्पन्न करती है । श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति के द्वारा श्वास-वायु के ग्रहण और उत्सर्जन की क्षमता प्राप्त होती है । भाषा पर्याप्ति भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्जन करती है। मनःपर्याप्ति मननयोग्य पदगलों के ग्रहण करने और छोड़ने में जीव का सहयोग करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy