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२६ / जैनतत्वविद्या जितनी प्रवृत्तियां होती हैं, वे शरीर के द्वारा ही होती हैं। शरीर के पांच प्रकार हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । इनमें औदारिक शरीर सबसे अधिक स्थूल है और कार्मण सबसे अधिक सूक्ष्म । वैक्रिय शरीर औदारिक की अपेक्षा सूक्ष्म होता है, आहारक उससे सूक्ष्म होता है, तैजस और कार्मण उससे भी सूक्ष्म होते हैं।
औदारिक शरीर की निष्पत्ति स्थूल पुद्गलों से होती है । इस शरीर का छेदन-भेदन हो सकता है। यह आत्मा से रहित होने पर भी टिका रहता है। नारक और देवों को छोड़कर एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक सभी जीवों के औदारिक शरीर होता है। मोक्ष की प्राप्ति केवल इसी शरीर के द्वारा संभव है।
वैक्रिय शरीर में विविध प्रकार की क्रियाएं घटित होती हैं । यह शरीर छोटा, बड़ा, स्थूल, सूक्ष्म कैसा भी बनाया जा सकता है । मृत्यु के बाद इस शरीर का कोई अवशेष नहीं रहता। वह कपूर की भान्ति उड़ जाता है। नारक और देवों के यह शरीर सहज होता है। मनुष्य और तिर्यञ्च भी वैक्रिय लब्धि प्राप्त कर इस शरीर का निर्माण कर सकते हैं। वायुकायिक जीवों के स्वाभाविक रूप से वैक्रिय शरीर होता
विशिष्ट योगशक्तिसम्पन्न, चतुर्दश पूर्वधर मुनि विशिष्ट प्रयोजनवश एक शरीर की संरचना करते हैं, उसे आहारक शरीर कहा जाता है। यह शरीर औदारिक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म तथा तैजस और कार्मण की अपेक्षा स्थूल होता है। फिर भी इसकी गति में किसी बाह्य व्यवधान का व्याघात नहीं हो सकता।
जो शरीर दीप्ति का कारण है और जिसमें आहार आदि पचाने की क्षमता है, वह तैजस शरीर है । इस शरीर के अंगोपांग नहीं होते । यह पूर्ववर्ती तीनों शरीरों से सूक्ष्म है।
पूर्ववर्ती औदारिक आदि चारों शरीरों का कारण है कार्मण शरीर । इस दृष्टि से इसे कारण शरीर भी कहा जाता है । इस शरीर का निर्माण ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म पुद्गलों से होता है।
तैजस और कार्मण शरीर मृत्यु के बाद भी जीव के साथ रहते हैं। कोई भी संसारी प्राणी इन दो शरीरों के बिना संसार में रह ही नहीं सकता। इन दोनों शरीरों से छूटते ही आत्मा मुक्त हो जाती है। फिर उसे संसार में परिभ्रमण नहीं करना पड़ता।
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