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वर्ग १, बोल ९ / २५ विमान हैं, जो अनुत्तर स्वर्ग के विमान कहलाते हैं। उनके नाम हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । इन सब देवों का दण्डक एक ही है।
ऊपर के देव नीचे के देवों की अपेक्षा स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या की विशुद्धि आदि बातों में उत्कृष्ट होते हैं। ___भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक—इन चार प्रकार के देवों के चौसठ इन्द्र होते हैं । भवनपति देवों के बीस इन्द्र हैं। दस उत्तर दिशा के और दस दक्षिण दिशा के । व्यन्तर देवों के आठ भेद हैं। आठों ही व्यन्तर देव दो जातियों में बंटे हुए हैं-ऊंची जाति और नीची जाति । इस प्रकार इनकी दो श्रेणियां हो गईं । दोनों श्रेणियों के दक्षिण और उत्तर दिशा में सोलह-सोलह आवास हैं। प्रत्येक आवास का एक-एक इन्द्र होने से इनके बत्तीस इन्द्र हो गए। ज्योतिष्क देवों के दो इन्द्र हैं—सूर्य और चन्द्रमा। वैमानिक देवों के बारह स्वर्ग हैं। उनमें नौवें-दशवें एवं ग्यारहवें-बारहवें स्वर्गों के इन्द्र एक-एक हैं । इस प्रकार बारह स्वर्गों के दस इन्द्र हैं। कुल मिलाकर ये चौसठ इन्द्र हैं । ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के सभी देव अहमिन्द्र होते हैं। इनमें छोटे-बड़े का कोई भेद नहीं होता।
___ जब तक जीव संसार में रहता है, उसे उक्त चौबीस दण्डकों में से किसी एक दण्डक में रहना जरूरी होता है । मुक्त होने वाला जीव ही इन दण्डकों से मुक्त होता
९. शरीर के पांच प्रकार हैं१. औदारिक ४. तैजस २. वैक्रिय
५. कार्मण ३. आहारक आत्मा अरूप है, अशब्द है, अगन्ध है, अरस है, और अस्पर्श है, इसलिए अदृश्य है। किन्तु मूर्त शरीर से बंधी हुई होने के कारण वह दृश्य भी है। आत्मा जब तक संसार में रहेगी, वह स्थूल या सूक्ष्म किसी न किसी शरीर के आश्रित ही रहेगी। आत्मा और शरीर का यह सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। यहां प्रश्न होता है कि शरीर क्या है ? और उसके कितने प्रकार हैं ? नौवें बोल में इन्हीं प्रश्नों का समाधान है।
पौटलिक सरव-तःरव की अनभति का जो साधन है. वह शरीर है । जीव की
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