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________________ २४ / जैतत्त्वविद्या १ लाख ८० हजार योजन का पिंड है। इस पिंड का एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती १ लाख ७८ हजार योजन का पिंड है । उसमें १३ प्रस्तट और १२ अन्तर हैं । उन बारह अन्तरों में एक ऊपर का और एक नीचे का – इन दो अन्तरों को छोड़कर शेष दस अन्तरों में दस प्रकार के भवनपति देवों के आवास हैं। यहां एक प्रश्न उठता है कि सात नारकी का दण्डक एक ही माना गया है । उसी प्रकार यहां दस भवनपति देवों का दण्डक एक क्यों नहीं हुआ ? प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है । इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि भेद और अभेद का आधार विवक्षा है । विस्तार की विवक्षा में अनेक भेद हो जाते हैं । संक्षेप की विवक्षा में एक ही भेद से काम हो जाता है । स्थावर जीवों के पांच दण्डक हैं— पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दण्डक स्वतंत्र माने गए हैं। इस विवक्षा से स्थावर जीवों के पांच दण्डक हो जाते हैं । इनके बाद आठ दण्डक बतलाए गए हैं। इनमें चार दण्डक तिर्यंचों के हैं—- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय । एक दण्डक मनुष्य का है । शेष तीन दण्डक देवों के हैं— व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक 1 व्यन्तर देव तिरछे लोक में रहते हैं । उनके आवास हमारी पृथ्वी के नीचे हैं । यह पृथ्वी रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक भूमि की छत के रूप में है। इसकी मोटाई एक हजार योजन की है। इसमें एक सौ योजन ऊपर और एक सौ योजन नीचे स्थान खाली है । मध्य में ८०० योजन का स्थान है। वहां व्यन्तर देवों के आवास हैं । वे देव इस पृथ्वी पर पहाड़ों, गुफाओं, वृक्षों तथा सूने घरों में भी रहते हैं । किन्तु उनके आवास पृथ्वी से नीचे हैं। व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं— पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व । ज्योतिष्क देव भी तिरछे लोक में रहते हैं । उनके पांच प्रकार हैं- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा । मनुष्य लोक के ज्योतिष्क देव भ्रमणशील हैं। उससे बाहर के सूर्य, चन्द्रमा आदि स्थिर रहते हैं । ज्योतिश्चक्र से असंख्य योजन की दूरी पर छब्बीस देवलोक हैं । प्रथम बारह देवलोकों में जो देव रहते हैं, उनमें इन्द्र, सामानिक, आत्मरक्षक, लोकपाल आदि अनेक प्रकार के देव होते हैं । इनसे ऊपर नौ ग्रैवेयक देवों के विमान हैं । इन देवों की ऋद्धि और ऐश्वर्य में कोई अन्तर नहीं होता । इन नौ विमानों से ऊपर पांच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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