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________________ वर्ग १, बोल ८ / २३ रहित हो जाती है । पानी भी उबलने पर जीवरहित हो जाता है। इसी प्रकार वनस्पति भी जीवरहित हो जाती है। जीवमुक्त होने के बाद इनके उपयोग से किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती । जैन दर्शन में जीवनिकायों का जो यह वर्गीकरण किया गया है, वह अपने आप में विलक्षण है। ८. दण्डक के चौबीस प्रकार हैं१. सात नारकी का दण्डक २-११. भवनपति देवों के दण्डक दस-असुरकुमार आदि। १२. पृथ्वीकाय का दण्डक १९. चतुरिन्द्रिय का दण्डक १३. अप्काय का दण्डक २०. तिर्यंच पंचेन्द्रिय का दण्डक १४. तेजस्काय का दण्डक २१. मनुष्य पंचेन्द्रिय का दण्डक १५. वायुकाय का दण्डक २२. व्यन्तर देवों का दण्डक १६. वनस्पतिकाय का दण्डक २३. ज्योतिष्क देवों का दण्डक १७. द्वीन्द्रिय का दण्डक २४. वैमानिक देवों का दण्डक १८. त्रीन्द्रिय का दण्डक संसारी जीव प्रवृत्ति करता है। प्रवृत्ति से कर्म का बन्ध होता है । बंधे हुए कर्म का फल भोगे बिना उससे छुटकारा नहीं मिलता। जिन स्थानों में प्राणी अपने किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं, वे स्थान दण्डक कहलाते हैं । फल भोगने के लिए जीव चार गति वाले संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। उन चार गतियों को ही थोड़ा विस्तार देने से चौबीस दण्डक होते हैं। सात नरक भूमियों में रहने वाले जीवों का एक ही दण्डक होता है । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, महातमप्रभा-ये सात पृथ्वियां हैं। इनमें नारक जीव निवास करते हैं। नारक जीवों के बाद भवनपति देवों के दण्डक हैं । उनके दण्डक दस हैं-दूसरे से ग्यारहवें तक । असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युतकुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार-ये दस प्रकार के भवनपति देव हैं। भवनपति देवों के आवास रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक भूमि है। यह पृथ्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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