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वर्ग १, बोल ५ / १९ रहस्यों की खोज कर संसार को चमत्कृत कर रहा है तो दूसरी ओर अपने शारीरिक
और मानसिक सुख के लिए वैज्ञानिक उपकरणों का निर्माण भी कर रहा है। साधना के द्वारा विशिष्ट शक्तियां, सिद्धियां और लब्धियां प्राप्त करने वाला प्राणी भी मनुष्य ही है। इस शताब्दी के मानव ने तो परखनली में मानव-संरचना का अभूतपूर्व कार्य सम्पन्न कर एक और नया आश्चर्य उपस्थित कर दिया है। __मनुष्य मृत्यु के बाद पुन: मनुष्य रूप में जन्म ले सकता है। वह देव, तिर्यञ्च और नारक भी बन सकता है। इसमें ही वह क्षमता है, जिसके द्वारा वह समूचे लोक को अतिक्रान्त कर लोकशीर्ष पर सिद्धात्मा के रूप में प्रतिष्ठा पा सकता है। यह विशेषता केवल मनुष्य-गति में ही है, इसलिए इसे बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। देव
जैन आगमों में देवों के चार प्रकार बतलाए गए हैं— भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । असुरकुमार, नागकुमार आदि भवनपति देवों के आवास नीचे लोक में है। पिशाच, भूत, यक्ष आदि व्यन्तर देव और सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिष्क देव तिरछे लोक में रहते हैं। वैमानिक देव ऊंचे लोक में रहते हैं । वे दो प्रकार के होते हैं—कल्पोपपन्न और कल्पातीत । बारह देवलोक के देव कल्पोपपन्न होते हैं। उनसे ऊपर नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमान के देव कल्पातीत होते हैं। उनमें स्वामी-सेवक जैसी कोई भेदरेखा नहीं होती । बारह देवलोकों में प्रथम आठ देवलोकों का आधिपत्य एक-एक इन्द्र के हाथ में है। नौवें और दसवें स्वर्ग को एक इन्द्र संभालता है। इसी प्रकार ग्यारहवें और बारहवें स्वर्ग का भी इन्द्र एक ही है। इस क्रम से बारह देवलोकों में दस इन्द्र हो जाते हैं।
देवगति का आयुष्य पूरा करने के बाद कोई भी देव तत्काल पुन: देव नहीं बन सकता। इसी प्रकार नारक जीव भी मृत्यु प्राप्त कर तत्काल नरक गति में उत्पन्न नहीं होता। इन दोनों गतियों के जीवों में पारस्परिक संक्रमण भी नहीं होता अर्थात् देव नरकगति में उत्पन्न नहीं होते और नारक स्वर्ग में उत्पन्न नहीं होते । मनुष्य और तिर्यञ्च मृत्यु के बाद किसी भी गति में उत्पन्न हो सकते हैं । मोक्ष की प्राप्ति केवल मनुष्य गति से ही हो सकती है।
स्वर्ग और नरक को सभी आस्तिक दर्शनों ने अपनी स्वीकृति दी है, पर उसके स्वरूप को लेकर काफी मतभेद है। यहां जो विवेचन है, वह जैन दर्शन की मान्यता के आधार पर किया गया है।
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