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१८ / जैनतत्त्वविद्या
३. परमाधार्मिक देवों के द्वारा दी जाने वाली वेदना ।
इन देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना तीन नरक भूमियों तक होती है। उससे आगे दो ही प्रकार की वेदना होती है । नारक जीवों का दुःख उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है । इन नरकभूमियों में उन जीवों को जाना पड़ता है, जो अत्यन्त क्रूरकर्मा और बुरे विचारों वाले होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार रत्नप्रभा नामक पहली पृथ्वी के ऊपर यह मनुष्य लोक है। तिर्यञ्च
नरक के बाद दूसरी गति का नाम है—तिर्यञ्च गति । इस गति में रहने वाले जीव संख्या में सबसे अधिक हैं । एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों तक सभी जीव निश्चित रूप से तिर्यञ्च ही होते हैं। इनमें पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, कृमि, चींटी, मक्खी, मच्छर आदि अनेक जीव हैं। कुछ पंचेन्द्रिय जीव भी तिर्यञ्च होते हैं, जैसे—पशु, पक्षी आदि । इनके अनेक प्रकार हैं, जैसे—मछली
आदि जलचर पंचेन्द्रिय हैं। गाय, भैंस आदि स्थलचर पंचेन्द्रिय हैं। पक्षी खेचर पंचेन्द्रिय हैं।
तिर्यञ्च गति में कुछ जीव बहुत शक्तिशाली होते हैं। उनसे मनुष्य भी डरते हैं। उनमें ज्ञान भी होता है। फिर भी उनका विवेक जागृत नहीं होता। इस दृष्टि से तिर्यञ्च गति को अप्रशस्त गति माना गया है।
___मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं—कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और संमूछिम । कर्मभूमिज मनुष्य कर्म-क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं। वे कृषि, मसि, असि आदि साधनों से अपनी जीविका चलाते हैं और अपने पुरुषार्थ का उपयोग करते हैं । अकर्मभूमिज मनुष्य ‘यौगलिक' कहलाते हैं। उन्हें अपनी आजीविका के लिए कृषि, मसि, असि आदि का सहारा लेने की अपेक्षा नहीं होती । उनके जीवन-यापन का साधन कल्पवृक्ष होते हैं । उनके जीवन की आवश्यकताएं इतनी न्यूनतम हैं कि कल्पवृक्षों से जो कुछ प्राप्त होता है, वे उसी में सन्तुष्ट हो जाते हैं।
संमूछिम मनुष्य नाम से तो मनुष्य ही हैं, पर उनमें मनुष्यता जैसा कुछ भी नहीं है । मानव-शरीर से विसर्जित मल-मूत्र आदि चौदह स्थानकों में उन जीवों की उत्पत्ति होती है । वे पांच इन्द्रियों से युक्त होते हैं, पर मानसिक संवेदन से रहित होते हैं। मनुष्य गति प्राप्त करने पर भी वे जीव किसी प्रकार का विकास नहीं कर सकते ।
एक दृष्टि से मनुष्य सृष्टि का नियंता है। वह एक ओर प्रकृति के अज्ञात
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