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वर्ग १, बोल ५ / १७ संयम होता है और न ही एकान्तत: असंयम होता है । यथासंभव संयम की साधना करने वाले इन प्राणियों में मनुष्य और तिर्यंच दोनों हो सकते हैं । संज्ञी, असंज्ञी, नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी
जीव के तीन प्रकारों में तीसरा वर्ग है— संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी | संज्ञी का अर्थ है समनस्क । समनस्क जीवों को पांच इन्द्रियों के अतिरिक्त मानसिक संवेदन की क्षमता भी प्राप्त होती है । इस विभाग में केवल पंचेन्द्रिय जीव आते हैं ।
जो जीव संज्ञा - मानसिक संवेदन से शून्य होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तक के जीव इस विभाग में आ जाते हैं ।
जो जीव इन्द्रिय और मन के संवेदन से ऊपर उठ जाते हैं, जिन्हें संवेदन की कोई अपेक्षा नहीं रहती, वे नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी कहलाते हैं। ये केवलज्ञानी होते हैं । उनकी ज्ञान चेतना पूर्णत: विकसित हो जाती है। इसलिए मानसिक संवेदन अपने आप में कृतार्थ हो जाता है ।
५. जीव के चार प्रकार हैं
३. मनुष्य
४. देव
१. नारक
२. तिर्यञ्च
नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव – ये चारों प्रकार के जीव जब तक कर्मों से बंधे हुए हैं, संसार में भ्रमण करते रहते हैं। जन्म और मृत्यु की परम्परा को दोहराते रहते हैं । इनका यह परिभ्रमण चार प्रकार की गतियों में होता है । गति का अर्थ है - एक जन्म- स्थिति से दूसरी जन्म- स्थिति को प्राप्त करने के लिए होने वाली जीव की यात्रा। उस यात्रा के चार पड़ाव हैं— नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव। इस दृष्टि से इन्हें भी चार गति के नाम से अभिहित किया जाता है।
नारक
नरक गति में रहने वाले जीव नारक कहलाते हैं। नारक जीवों के आवास-स्थल रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि सात पृथ्वियों के पिण्ड में है । ये पृथ्वियां नीचे लोक में हैं । इनमें रहने वाले जीव बहुत अधिक वेदना - कष्ट का वेदन करते हैं । इनकी वेदना तीन प्रकार की होती है
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१. उस क्षेत्र के प्रभाव से होने वाली वेदना ।
२. नैरयिक जीवों द्वारा परस्पर लड़ाई-झगड़ा कर उत्पन्न की गई वेदना ।
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