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१६ / जैतत्त्वविद्या
१. स्त्री
१. असंयमी
४. जीव के तीन-तीन प्रकार हैं
२. पुरुष
२. संयमासंयमी
२. असंजी
३. नपुंसक
३. संयमी
३. नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी
१. संज्ञी
स्त्री, पुरुष, नपुंसक
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चौथे बोल में जीव के तीन-तीन प्रकारों के तीन वर्ग हैं। प्रथम वर्ग के तीन प्रकार हैं— स्त्री, पुरुष और नपुंसक । जीवत्व की दृष्टि से ये सभी जीव हैं । इनके प्रकार लिंगभेद के आधार पर हैं। एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों तक सब जीव नपुंसक होते हैं। पंचेन्द्रिय में नरक के जीव, संमूच्छिम तिर्यञ्च और संमूच्छिम मनुष्य नपुंसक होते हैं। गर्भज मनुष्य एवं तिर्यञ्च – स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों प्रकार के होते हैं। देवों के स्त्री और पुरुष — ये दो ही प्रकार हैं। वे नपुंसक नहीं होते ।
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स्त्री, पुरुष और नपुंसक का यह भेद केवल लिंग के आधार पर है। लिंग पहचान का माध्यम है । यह त्याज्य या ग्राह्य कुछ भी नहीं होता । त्याज्य है वेद या विकार, जो आत्मा को विकृत बनाता है । वेद का अस्तित्व आत्मविकास की नौवीं भूमिका ( गुणस्थान) तक है। यह बन्धन का हेतु है, इसलिए त्याज्य है । वेद समाप्त होने के बाद भी लिंग का अस्तित्व बना रहता है। जब तक शरीर है, तब तक यानी आत्मविकास की चौदहवीं भूमिका तक लिंग है। लिंग-जन्य विकार पर विजय प्राप्त होने से ही अग्रिम भूमिका तक पहुंच संभव है । इस दृष्टि से वेद और लिंग का भेद समझ कर साधना के पथ को प्रशस्त करने की अपेक्षा है । असंयमी, संयमासंयमी, संयमी
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जीव के तीन प्रकारों में दूसरा वर्ग है—– असंयमी, संयमासंयमी और संयमी । ये भेद साधना के आधार पर किए गए हैं। जो प्राणी किसी प्रकार की साधना का संकल्प स्वीकार नहीं करते, असंयम के प्रवाह में बहते रहते हैं, वे असंयमी कहलाते हैं। जो प्राणी संसार से विरक्त होकर विवेकपूर्वक साधना का पथ स्वीकार करते हैं— पांच महाव्रत रूप संयम की साधना करते हैं, वे संयमी कहलाते हैं। संयम की साधना करने वाले केवल मनुष्य ही होते हैं ।
संयमासंयमी दोनों स्थितियों के बीच की अवस्था है। इसमें न एकान्ततः
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