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वर्ग १, बोल ३ / १५ सामान्यत: पर्याप्त का अर्थ होता है पूर्ण और अपर्याप्त का अर्थ होता है अपूर्ण । किन्तु यहां इन दोनों शब्दों का विशेष अर्थ है । ये जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं । इनका सम्बन्ध पर्याप्तियों से है । 'भवारम्भे पौद्गलिकसामर्थ्यनिर्माणं पर्याप्तिः' जन्म के आरम्भ में जीवन-यापन के लिए आवश्यक पौद्गलिक शक्ति के निर्माण का नाम पर्याप्ति है । पर्याप्तियां संख्या में छह हैं-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मन पर्याप्ति । इनका विशद विवेचन ग्यारहवें बोल की व्याख्या में उपलब्ध हो सकेगा।
कौन से जीव पर्याप्त हैं और कौन से अपर्याप्त? इस संदर्भ में इतना ही ज्ञातव्य है कि प्रत्येक जीव प्रारम्भ में अपर्याप्त होता है। जिस जन्म में जितनी पर्याप्तियां प्राप्त करनी हैं, उन्हें पूरा पा लेने के बाद जीव पर्याप्त बनता है। अपर्याप्त अवस्था का कालमान बहुत कम है । पर्याप्त हो जाने के बाद जीवन भर वही स्थिति रहती है । अपर्याप्त अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होने वाले जीवों को छोड़कर पृथ्वी, पानी आदि सूक्ष्म जीवों से लेकर मनुष्य और देवों तक सभी जीव पहले अपर्याप्त और कालान्तर में पर्याप्त—इन दोनों स्थितियों से गुजरते हैं । केवल संमूछिम मनुष्य की योनि में उत्पन्न होने वाले जीव अपर्याप्त ही होते हैं। उनके तीन पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं, पर चौथी पर्याप्ति को पूरा किए बिना ही वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसीलिए उनको अपर्याप्त ही माना गया है।
पर्याप्तियों के निर्माण में बहुत कम समय लगता है। एक अन्तर्मुहूर्त में सब पर्याप्तियों का निर्माण हो जाता है। एक इन्द्रिय वाले जीवों के चार पर्याप्तियां होती हैं । दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीवों के पांच पर्याप्तियां होती हैं । देवों के मन
और भाषा में कोई भेद नहीं रहता, इस दृष्टि से पांच पर्याप्तियां मानी गई हैं। पांच इन्द्रिय वाले तिर्यञ्च, मनुष्य और नारक जीवों के छहों पर्याप्तियां होती हैं।
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